पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१४७

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विलासः२]
(१२७)
भाषाटीकासहितः।


कर को करकमल कहना और शब्दों का दुरुच्चारण उन्मत्तताव्यंजक हैं)

शतेनोपायानां कथमपि गतः सौधशिखरं सुधा-
फेनस्वच्छे रहसि शयितां पुष्पशयने। विबो-
ध्य क्षामांगीं चकितनयनां स्मेरवदनां सनिः-
श्वासं श्लिष्यत्यहह सुकृती राजरमणीम्॥१५३॥

अनेक उपायोंसे किसी प्रकार राजमंदिरके शिखरके ऊपर प्राप्त होकर, अमृतके फेन समान स्वच्छ पुष्पशंय्या पर एकांत स्थलमें सोनेवाली, कषांगी, चकितनयनी, मंदमुसुकानिमुखी, राजरमणीको जागृत करके श्वास परित्याग करते हुए पुण्यवान पुरुष आलिंगन करते हैं (ग्रंथकर्ता पंडितराज ही का तो यह वृत्तांत नहीं!)

गुंजंति मंजु परितो गत्वा धावंति संमुखम्।
आवर्तंते विवर्तंते सरसीषु मधुव्रताः॥१५॥

सरोवरिणी में मधुप सर्व और मंजु गुंजार करते है, सन्मुख जाकर दौडते हैं, आते हैं और जाते भी हैं (इस श्लोक में एक तो शरहतु का समीपत्व सूचित होता है और दूसरे यौवन को शीघ्रही प्राप्त होनेवाली नायिका के निकट जार पुरुषों का आवागमन भी ध्वनित होता है)

यथा यथा तामरसेक्षणा मया पुनः सरागं नि-