पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१५१

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विलासः२]
(१३१)
भाषाटीकासहितः।

ति। विकलयति कुसुमबाणो बाणालीभिर्मम प्राणान्॥१६३॥

(उधर) वह (नायिका अपने) सुकुमारतर अंगौसे पुष्पों की शोभा को हरण करती है; (इधर) पुष्पबाण [मन्मथ] शरसमूह से मेरे प्राणों को विकल करता है (पुष्प, मन्मथ के बाण हैं उनकी शोना कामिनी ने हरण की इससे काम को उचित था कि उसे दंड देता परंतु वैसा न करके किसी दूसरे ही पुरुष को वह विकल करता है इससे कारज असंगत हुआ अर्थात् जो क्रिया जहां होनी चाहिए थी वहां न होकर अन्य स्थल में हुई। यह 'असंगति' अलंकार है)

खिद्यति सा पथि यान्ती कोमलचरणा नितम्बभारेण।
खिद्यामि हन्त परितस्तद्रूपविलोकनेन विकलोऽहम्॥१६४॥

(उधर) मार्ग में गमन करती हुई वह कोमलचरणा (कामिनी) नितंब भार से खेद पाती है और उधर आसमंताद्भागमें उसके स्वरूपको अवलोकन करने से विकल हुआ हाय मैं खेदित होता हूँ!

मथुरागमनोन्मुखे मुरारावसुभारातिभृतां व्रजांगनानाम्।
प्रलयज्वलनायते स्म राका भवनाकाशमजायताम्बुराशिः॥१६५॥

श्रीकृष्णचन्द्र के मथुरा गमनोन्मुख होने से, प्राणरूपी