पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१५२

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[शृंगार-
भामिनीविलासः।


भार के दुःख को धारण करनेवाली ब्रजनारिओं को, पौर्णिमाकी रात्रि प्रलयकाल के अमिसमान और गृहप्रदेश समुद्र समान हुआ।

केलीमंदिरमागतस्य शनकैरालीरपास्येंगितैः
सुप्तायाः सरुषः सरोरुहदृशः संवीजनं कुर्वतः।
जानंत्याप्यनभिज्ञयेव कपटव्यामीलिताक्ष्या
सखि श्रांतासीत्यभिधाय वक्षसि तया पाणिर्म मासंजितः॥१६६॥

(मुझे) केलिमंदिर में आया जान, धीरे धीरे सैन से सखियों को दूर करके सोई हुई सरोष कमलनयनी ने व्यजन [पंखा] से पवन संचार करने वाले मुझे जानकर भी अजान की भांति, कपट से अर्थात् झूठमूठ नेत्रों को बंद किए 'हे सखि तू थकगई। ऐसा कहके (अपने) हृदय में मेरे कर को स्थापन किया (नायिका ने अपना रोष नायक के द्वारा छुडाना चाहा, इससे सोने का निमित्त लेकर व्यजन करते हुए पति के हस्त को सखी के हस्त के मिष से अपने उर स्थल में लगाया, उधर नायक को भी मान त्याग करने के लिए अधिक विनय करने का प्रसंग भी न आया और अनायास अपना हाथ कामिनी के उर में जाने से कुचस्पर्शन का लाज भी हुआ; तात्पर्य दोनों का मनमाना कार्य हुआ. बिना प्रयत्न नायिका के उरस्थल का स्पर्श होने से 'प्रहर्षण' अलंकार हुआ)