पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१७२

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[शांत-
भामिनीविलासः।

जगज्जालं ज्योत्स्नामयनवसुधाभिर्जटिलयञ्जनानां संतापं त्रिविधमपि सद्यः प्रशमयन्।
श्रितो वृंदारण्यं नतनिखिलवृंदारकवृतो मम स्वांतध्वातं निरयतु नवीनो जलधरः॥५॥

चन्द्रिकारूपी नूतन अमृतसे संसारको परिपूर्ण करनेवाला, मनुष्योंके त्रिविधि संतापको शीघ्रही शांत करनेवाला, वृंदावनवासी, (मस्तक) नम्रकिएहुए अखिल देवगणों से युक्त, नूतन मेघरूपी श्रीकृष्ण भगवान् मेरे अंतःकर्णके अंधकारको नाश करै।

ग्रीष्मचंडकरमंडलभीष्मज्वालसंसरणतापितमूर्तेः।
प्रावृषेण्य इव वारिधरो मे वेदनां हरतु वृष्टिवरेण्यः[१]॥६॥

यादवश्रेष्ठ श्रीकृष्ण भगवान, वर्षा ऋतु सम्बन्धी मेघवत्, गीष्मर्तु के सूर्य मंडल की अत्युम ज्वाल समान संसारजनित ताप से मुझ संतप्त हुए की वेदना हरण करै।

अपारे संसारे विषमविषयारण्यसरणौ मम भ्रामं भ्रामं विगलितविरामं जड़मतेः।
परिश्रांतस्यायं तरणितनयातीरनिलयः समंतात्संतापं हरिनवतमालस्तिरयतु॥७॥

इस अपार संसारके विपम विषयरूपी अरण्यमार्ग परि-


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