पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१८६

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[शांत-
भामिनीविलासः।

खकर पुस्तक समाप्त करैंगेः-सुमेरुगिरि के मूल से लेकर मलयाचलसे वेष्टित समुद्रके कूल पर्यंत अर्थात् सारे भरतखंड में जितने काव्य रचनानिपुण होवें वे (इस बातको) निःशंक कहैं कि द्राक्षाके मध्य से निकलनेवाली सत्वरसझरी समान मधुशीला वाणीके स्वामित्व पदके अनुभव लेनेको मेरे अतिरिक्त और कौन धन्य है? (मेरे समान रसभरित काव्य अन्य कवि नहीं कर सकता यह भाव)

गिरां देवी वीणागुणरणनहीनादरकरा यदीया-
नां वाचामनृतमयमाचामति रसम्। वचस्त-
स्याकर्ण्य श्रवणसुभगं पंडितपतेरधुन्वन्मूर्धानं
नृपशुरथवायं पशुपतिः॥३९॥

वीणा के बजाने में अपने हस्त को शिथिल करके अर्थातू वीणा बजाना छोड़ (प्रत्यक्ष) सरस्वती देवी जिसकी वाणी के अमृतमय रस को पान करती है, उस पंडितपतिके श्रवण सुहावने वचन सुनकर मनुष्यरूपधारीपशु अथवा सदाशिव (के समान केवल योगिजन) शिर नहीं हिलाते। तात्पर्यः-मेरे कवित्व को श्रवण करने में जिन्हें आनंद नहीं होता उन्हें केवल पशु अथवा जीवनमुक्त कहना चाहिए ।

मधु द्राक्षा साक्षादमृतमथ वामाधरसुधा क-
दाचित्केपांचिन्न खलु विदधीरन्नपि मुदम्।
ध्रुवं ते जीवंतोऽप्यहह मृतका मंदमतयो न ये-