पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१८७

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विलासः४]
(१६७)
भाषाटीकासहितः।

षामानंदं जनयति जंगन्नाथभणितिः॥४०॥

माक्षिक [शहत,] द्राक्षा [दाख] साक्षात् अमृत व स्त्री अधरोष्ठरस भी कदाचित चाहै किसी को प्रमुदित न करें (परंतु) जगन्नाथ की काव्यसे जो आनंदित नहीं होते व जडबुद्धि (इस संसार) में जीते ही मृतकके समान हैं।

निर्माणे यदि मार्मिकोऽसि नितरामत्यंतपाक
द्रवन्मृद्धीकामधुमाधुरीमदपरीहारोद्धराणां गि-
राम्। काव्यं तर्हि सखे सुखेन कथय त्वं सं-
मुखे मादृशां नो चेद्दुष्कृतमात्मना कृतमिव
स्वांताब्दहिर्मा कृथाः॥४१॥

हे मित्र! अत्यंत परिपक्वभावको प्राप्त होनेवाली, द्रवीभूत द्राक्षाके रसकी माधुरीके मदको परिहार करने में समर्थ,वाणी के निर्माणमें यदि तू मर्मज्ञ है तो मेरे सन्मुख सुखसे काव्य कथन कर; (परंतु)जो मनमें (किसी प्रकारका) गर्व हो तो (उसे) स्वमुखसे बहिष्कृत न होने दे (मेरे सन्मुख चाहै तो काव्यालाप कर परंतु यदि तेरे मनमें स्वकाव्य विषयक कुछ भी अभिमान हो तो तेरा कहना उचित नहीं अर्थात् जो तू वैसा करेगा तो मेरे द्वारा तेरा पराभव होगा एक मात्र केवल मेरी काव्य सर्वोत्कृष्ट है यह भाव)

मद्वाणि मा कुरु विषादमनादरेण मात्सर्यमग्न
मनसां सहसा खलानाम्। काव्यारविंदमकरं