पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१८८

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[शांत-
भामिनीविलासः।

दमधुव्रतानामास्येषु धास्यतितमां कियतो विलासान् ॥४२॥

हे मद्वाणि! मत्सरभावपूरित खलौं के सहसा अनादर से तू विषाद मत कर; काव्यारविंदमकरंद के (लोनी, रसिक जनरूपी) मधुव्रतों के मुख में तू अनेक प्रकारके विलासों को धारण करैगी। (रसज्ञ तेरा महान आदर करैंगे यह भाव)

विद्वांसो वसुधातले परवचःश्लावासु वाचयमा
भूपालाः कमलाविलासमदिरोन्मीलन्मदापूर्णि-
ताः। आस्ये धास्यति कस्य लास्यमधुना
धन्यस्य कामालसस्वर्वामाघरमाधुरीमधरयन्
वाचां विपाको मम ॥४३॥

धरातलमे विद्वज्जन अन्यकृत काव्यकी प्रशंसा में मूक (हो रहे हैं); भूपाल, संपत्तिरूपी मदिराके मद से नमिष्ट (भावको प्राप्त हुए हैं; अत एव काव्यके प्रकाश होनेके दोनों मार्ग न रहने से) कामालस अप्सराओंके अधरकी माधुर्य्यता को जीतने वाला, मेरी वाणीका विपाक [फल-अर्थात् कवित्व] इस समयमें किस धन्यके मुखमें नृत्य करैगा?

धुर्यैरपि माधुर्यैर्द्राक्षाक्षीरेक्षुमाक्षिकादीनाम्। वं-
द्यैव माधुरीयं पंडितराजस्य कवितायाः॥४४॥

पंडितराज (जगन्नाथ) की कविताकी माधुरी, द्राक्षा, दुग्ध, ईख, माक्षिक [शहत] इत्यादिककी महान माधुर्यसे