पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

श्रीः।

अथ भामिनीविलासः।

भाषा टीका सहितः।

प्रथमः प्रास्ताविकविलासः।

माधुर्य[१]परमसीमा सारस्वतजलधिमथनसंभूता॥
पिवतामनल्पसुखदा वसुधायां मम सुधा कविता॥१॥

माधुर्य की सीमा को प्राप्त होनेवाली, विद्यारूपी सागर के मंथन से उत्पत्ति पानेवाली, पान करने में अत्यानंद की देने वाली, (यह) मेरी कविता संसार में अमृत (के समान) है।

दिगंते[२] श्रूयंते मदमलिनगंडाः करटिनः।
कारिण्यः करुण्यास्पदमसमशीलाः खलु मृगाः।
इदार्नी लोकेऽस्मिन्ननुपमशिखानां पुनरयं।
नखानां पांडित्यं प्रकटयतु कस्मिन् मृगपतिः॥२॥

मदोदक से जिनके गंडस्थल मलिन हो गए है ऐसे मदोन्मत्त हस्ती दिगंत में हैं (इस प्रकार के शब्द लोगोंके मुख


  1. यह आर्या छंद है। इसमें कही हुई पंडितराज जगन्नाथजी की गर्वोक्ति अक्षरशः सत्य है यह कोई भी गुणज्ञ, जिसने इनके कियेहुये ग्रंथौं का अवलोकन किया है, मानैगा।
  2. यह शिखरिणी छंदहै।