पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/४१

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विलासः१]
(२१)
भाषाटीकासहितः।

साकं ग्रावगणैर्लुठंति मणयस्तीरेऽर्कबिम्बोपमा।
नीरे नीरचरैः समं स भगवान् निद्राति नारायणः॥
एवं वीक्ष्य तवाविवेकमपि च प्रौढिं परामुन्नतेः।
किं निन्दाग्यथवा स्तवानि कथय क्षीरार्णवत्वामहम्४१

हे क्षीरसागर! तेरे तीर पर सूर्य बिम्ब सदृश दीप्तिमान मणिया पाषाणो के साथ पड़ी रहती हैं और तेरे जलमे जल जंतुओं के बीच भगवान नारायण शयन करते हैं इस प्रका र का तेरा अविवेक तथा वैभव देख मैं तेरी निंदा करूं अथवा प्रशंसा करूं यह तूही कह! (जहाँ सत्कर्म के साथ असत्कर्म भी होते हैं वहां इस अन्योक्ति का भाव घटित करना चाहिए)

किं खलु रर्त्नेरेतैः किं पुनरभ्रायितेन वपुषा ते।
सलिलमपि यन्न तावक, मर्णव वदनं प्रयाति तृषितानाम्॥४२॥

हे सागर! तेरे [अमूल्य रत्नों तथा तेरे मेघवत् (सुंदर) शरीर से क्या लाभ है जो तेरा जल भी पिपासाकुल प्राणियों के मुख में नहीं पड़ता! (यदि श्रीमानने दान न दिया तो उसका धन व्यर्थ है)

इयत्यां सम्पत्तावपि च सलिलानां त्वमधुना।