पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/५०

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[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।

चले जावेंगे तब मैं अपनी चोंच से खिड़की को तोड पिंजरे से निकल जाऊंगा, इस प्रकार के मनोरथरूपी पीयूष का स्वाद कीर [मुवा] ले ही रहाथा कि गजशुंडा के समान एक विशाल सर्प ने पिंजरे में प्रवेश किया (मनष्य सुखार्थ प्रयत्न करने को उद्यत होते हैं परंतु अभाग्यवश कार्यारंभ के पहिलेही प्रतिकुल बातें हो ने लगती हैं)

रे चाञ्चल्यजुषो मृगाः श्रितनगाः कल्लोलमालाकुला।
मेतामम्बुधिगामिनीं व्यवसिताः संगाहितुं वा कथम्॥
अत्रैवोच्छलदम्बुनिर्भरमहायतैः समावर्तितो।
यद्ग्राहेण रसातलं पुनरसौ नीतो गजग्रामणीः॥५९॥

हे पर्वताश्रित चंचल मृग! जिसके ऊर्ध्वगामी जल समूह की विशाल भँवरों में पड़ने वाले गजेन्द्र को भी ग्राह [मगर] ने रसातल को पहुंचाया उस, तरंगो में व्याप्त, सागरगामिनी महानदी[१] की थाह लेने को तुम कैसै उद्युक्त हुए? (जिस कार्य में बड़ों को ही यश न आया उसके करने को छोटों का कटिबद्ध होना मूर्खतामात्र है)

पिब स्तन्यं पोत त्वमिह मददन्तावलधिया।
दृगन्तानाधत्से किमिति हरिदन्तेषु परुपान्॥
त्रयाणां लोकानामपि हृदयतापं परिहरन्।
अयं धीरं धीरं ध्वनति नवनीलो जलधरः॥६०॥


  1. में क्रीडा करने को।