पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३८)
[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।


क में वहति, दधाति, भजति और भमति इन चारों क्रियापदौं का एकही सा अर्थ होता है इससे यदि इनमे से एकही लिखा जाता तो भी चारौं का बोध हो जाता परंतु ऐसा न करके प्रत्येक कर्ता की क्रिया प्रथक प्रथक लिखी इससे 'अर्थावृत्तिदीपक, अलंकार हुआ)

सत्पुरुषः खलु हिताचरणैरमन्दमानन्दयत्यखिललोकमनुक्त एव।
आराधितः कथय केन करैरुदारैरिन्दुर्विकाशयति कैरविणीकुलानि॥७५॥

सत्पुरुष बिना कहेही अपने हितकर आचरण से अखिललोक को परमानंदित करते हैं। कहिए चंद्रमा की किसने आराधना [पूजा] की है कि जिससे वह अपनी उदार किरणों से कुमोदिनीकुल को विकसित करता है? (अर्थात् सज्जन स्वभावहीं से जगत का हित करते हैं किसी को उन्हें कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। सत्पुरुष का वृत्तांत वर्णन करके चंद्रमा का उदाहरण दिया इससे 'दृष्टांत' अलंकार हुआ)

कृतमपि महोपकारं पय इव पीत्वा निरातङ्कम्।
प्रत्युत हन्तुं यतते काकोदरसोदरः खलो जगति॥७६

सर्प के समान संसार में खल मनुष्य अपने ऊपर किएगए महदुपकार को दुग्ध सदृश निर्भय पान करके उलटा (उपकार करनेवाले के) प्राण लेने को उद्यत होते हैं (इसमें पू-