पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/८८

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[शृंगार-
भामिनीविलासः।


मुझे नहीं होता (अर्थात् मैं सदैव उनका स्मरण करता रहता हूं, कभी झूलता नहीं)

बदरामलकाम्रदाडिमानामपहृत्य श्रियमुन्नतौ क्रमेण।
अधुना हरणे कुचौ यतेते दयिते ते करिशावकुम्भलक्ष्म्याः[१]॥८॥

हे कांते! क्रम क्रम से ऊंचे उठनेवाले तेरे कुचद्वय, बेर (बदरीफल,) आमला (आमलकधात्रीफल,) आम्र और दाडिम (अनार) की शोभा को हरण करके अब इस काल में गजशावक के गंड़स्थल की शोभा हरने का प्रयत्न करते हैं (मुग्धा नायका की उस अवस्था का वर्णन है जिसमें शरीर कांति दिन प्रति वटती जातीहै। इस श्लोकमें कुचौं का उत्तरोत्तर उत्कर्ष वर्णन किया इससे 'सार' अलंकार हुआ)

जंबीरश्रियमतिलंध्य लीलयैव व्यानम्रीकृतकमनीयहेमकुंभौ।
नीलाम्भोरुहनयनेऽधुना कुचौ ते स्पर्धेते किल कनकाचलेन सार्धम्[२]॥९॥

हे नीलकमल लोचन! जंबीर नीबूकी शोभा को उलंघन करके, निज लीला से सुन्दर हेमरूपी कुंभौं [घटौं] को नम्र करने (जीतने) वाले तेरे कुच अब इस समय में सुमेरु पर्वत के साथ स्पर्धा [ईर्षा] करते हैं (अर्थात् अत्यंत पीन और उन्नत स्थिति को प्राप्त हो रहे हैं-इसमें भी 'सार' अलंकार है)


  1. यह 'माल्यभारा' छंद है।
  2. यह 'प्रहर्षिणी' छंद है।