पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/९३

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विलासः२]
(७३)
भाषाटीकासहितः।

केण मंदम्। दरकुंडलतांडवं नतशूलतिकं
मामवलोक्य घूर्णितासीत्[१]॥१९॥

गुरुजनौं के बीचमें बैठी हुई और कमलकलीसे धीरे मेरी मारी हुई ननांगी [नत हैं अंग जिसके ऐसी] मुझे देख कर्ण कुंडलौं को किंचित नचाती और भृकुटि लता को नत (तात्पर्य-टेढी, बंक) करती हुई घूरने लगी।

विनये नयनारूणप्रसाराः प्रणतौ हंत निरन्तराश्रुधाराः॥
अपि जीवितसंशयः प्रयाणे न हि जाने हरिणाक्षि केन तुष्ये[२]॥२०॥

विनय करने सें लोचन लाल हो जाते हैं, प्रणत क्रिया [पैर पडने अथवा हाथ जोडने] में निरंतर अश्रुधारा चलती है, (विदेश) गमन (की बात चलाने) में प्राण (रखने) की भी शंका होती है, (अतएव मैं) नहीं जानता कि (यह) मृगनयनी किस बातसे संतुष्ट होगी? (हाय यह बडा खेद है)

अकरुण मृषाभाषासिंघो विमुंच ममांचलं तव
परिचितः स्नेहः सम्यङ्मयेत्यभिधायिनीम्।
अविरलगलद्वाष्पां तन्वीं निरस्तविभूषणां क
इह भवती भद्रे निद्रे विना विनिवेदयेत्[३]॥२१॥

हे निर्दय! असत्यभाषण समुद्र! मेरा अंचल छोड, मैंने तेरा स्नेह भली भांति जान लिया ऐसा बोलने वाली (और)


  1. 'माल्यभारा'।
  2. 'माल्यभारा'।
  3. 'हरिणी' छंद है।