पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास.djvu/५१

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कहते हैं। यह वह व्यास जी नहीं हैं जिन्हों ने महाभारत की रचना की थी। यह अपनी शिक्षा को उपनिषदों के अनुसार बताते हैं और इनका कथन है कि मनुष्य को चाहिये कि परमेश्वर की आराधना करे। आत्मा, सत और समस्त सृष्टि का जन्म उसी से हुआ है, और अन्त में सब उसी से मिल जायगा। फिर वही वह रह जायगा और कुछ न रहेगा। बादरायण का कथन है कि मनुष्य की आत्मा परमेश्वर ही का एक अंश है जिस तरह चिनगारी अग्नि का अंश है। अर्थात् एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। इसको अद्वैत वेदान्त कहते हैं। कारण यह कि वह जगत को ईश्वर से भिन्न नहीं समझता और ऐक्यता की शिक्षा देता है। दोनों परमेश्वर के स्वरूप हैं। यथार्थ में एक ही हैं भेद कुछ भी नहीं है। जो कुछ है सो एक वही परमात्मा है।

१२—ब्राह्मण सारी जातियों के गुरु और राह बतानेवाले थे। इस कारण उन्हों ने सब जातियों के कर्तव्य निश्चित किये और उनके लिये नियम बना दिये। पहिले यज्ञ और हवन की रीतियां बनाई और और उनके हर भाग के विषय में पृथक पृथक नियम बतलाये। फिर ब्रह्मभोज और जेवनार के कायदे स्थिर किये। गृहस्थ के धर्म्म और उसके निबाहने की रीतियां बड़ी सुगमता के साथ बर्णन की। यह सब बातें श्लोकों में लिखी हैं जो कंठ किये जाते हैं। मनु जी के धर्म्मशास्त्र में आचार व्यवहार के नियम हैं। मनु यह बताते हैं कि शासन कैसे होता है और अपराधियों को किस प्रकार दंड देना चाहिये। जान पड़ता है कि मनु स्मृति पहिले सूत्रों में रची गई थी; श्लोक बहुत पीछे बने हैं।