दक्षिण और मयूरका वृत्तान्त २८९ तक दक्षिणमें मौजूद है, इसलिये दक्षिणके इतिहासका अध्ययन उत्तर भारतके निवासियोंके लिये भी नीरस न होगा। परन्तु दुर्भाग्यसे अभीतक इस प्रदेशका पूरा इतिहास तैयार नहीं हुआ। यह भी स्मरण रहना चाहिये कि वर्तमान कालमें भी दक्षिणने हमारी प्रगतिको बढ़ानेमें महत्वपूर्ण भाग लिया है। दक्षिणकी वांट प्रायः दो भागोंमें की दक्षिणी बांट। जाती है। प्रथम भागमें वह प्रदेश मिला है जो उत्तरमें नर्मदा तथा दक्षिणमे कृष्णा और तुगभद्राके बीच है। और दूसरे भागमें वह त्रिकोणाकार भूभाग आता है जो कृष्णा और तुङ्गभद्रा नदीसे आरम्भ होकर कुमारी अन्तरीप. तक जाता है। इस दूसरे भागको साधारणतया ऐतिहासिकोने तामिल देशका नाम दिया है । ठेठ दक्षिणमें हैदराबाद राज्यका प्रायः सारा इलाका और महाराष्ट्र मिले हुए हैं। ऐतिहासिक प्रयोजनोंके लिये मैसूरको भी दक्षिणमें गिना जाता है। दक्षिणकी सबसे प्राचीन राजनीतिक शक्ति आन्ध. राज्य थी जो साढ़े चार सौ वर्ष अर्थात् सन् २२५ ई०तक उन्नत. अवस्थामें रही। उसके बादका दक्षिणका इतिहास अभीतक. पूर्णरूपसे तैयार नहीं हुआ। दक्षिणका नियमबद्ध इतिहास छठी शताब्दीमें चालुक्य वंशसे आरम्भ होता है। कहा जाता है कि ईसाकी तीसरीसे छठो कदम्बा शताब्दीतक उत्तरी और दक्षिणी प्रान्तके जिले और पश्चिमी मैसूर .कदम्योंके अधिकारमें रहे। उनकी राजधानी वनवासी थी। इसको जयन्ती भी कहा है। इसका उल्लेख अशोकको राजाज्ञाओंमें मिलता है। यह वंश वास्तव में वाह्मण था परन्तु राजपदको पानेके कारण उनको क्षत्रिय गिना गया है। 1