पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/३५१

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हिन्दू और यूरोपीय सभ्यताफी तुलना ३०६ विपत्ति फैली है। जो लोग इन विचारोंके माननेवाले हैं ये मनुष्य-समाजके मित्र नहीं घरन शत्रु है। सिकन्दर, नैपोलियन, सीज़र, शार्लिमेन ये पुण्यकी शक्तियां नहीं थीं। उन्होंने विश्व- व्यापी विजयोंके अभिमानमें और विश्वव्यापी साम्राज्यकी लालसा संसारमें अपरिमेय रसपात किया और संसारको "तास नहस करके वे मनुष्य-जातिके विनाशके कारण हुए। भारत के इतिहासको पढफर हम यह नहीं कह सकते कि किसी भारतीय राजाके हृदयमें साम्राज्यका विचार प्रविष्ट नही हुआ। केवल इतना कह सकते है कि फिसो हिन्दु मार्य या बौद्ध राजाने अपने साम्राज्य सम्बंधी विचारको इतना नहीं बढ़ाया कि वह इसको भारतसे यादर ले जाता। भारतके भीतर भी वह कभी इस विचारको ऐसी तरहसे उप- योगमें नहीं लाया जिससे कि स्थायी और पूर्णरूपसे विजित प्रदेशोंको वह राजनीतिक और संस्कन-सम्बंधी दोनों रीतियोंसे दासत्वकी जझीरों में जकड देता। इन राजाओंने देश अपश्य लिये और कमी फभी लूट-मार भी की परन्तु स्थायीरूपसे किसी विजित या स्वायत्त किये प्रदेशका रुधिर चूसनेकी चेष्टा नही फी । हिन्दुओंने अपने इतिहासके किसी कालमें धर्मका राजनी- तिक उपयोग नहीं किया और न धर्मकी छत्रछायामें दूसरी जातिकी स्वतंत्रता, उसके देश और उसकी सम्पत्तिपर कोई छीना झपटी की। इस विषयमें प्रसिद्ध अंगरेज प्रत्यकार श्रीयुत एच० जी० चेल्सकी पुस्तक, 'संसारका इतिहास', दूसरा पण्ड, पृष्ठ २५७ देपने योग्य है। घेल्स महाशय नेपोलियन बोनापार्ट लेखों से इस विषयका एफ लेप उपस्थित फरते है जिससे प्रकट होता है फि फ्रांसीसी राज्य अपने पारयोंको इस प्रयो- जनसे विदेशों में भेजता रहा। वास्तवमें समन यूरोप ही ऐसा