पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/३५२

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भारतवर्षका इतिहास थी। फरता रहा है और फरता है। अमरीकन व्यापारी और कारखा- नादार भी इस उद्देशसे अपने प्रचारक एशियाफेदेशोंमें भेजते हैं। कुछ गुप्तरूपसे यह काम करते हैं और कुछ प्रकटरुपसे। परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि धर्म-प्रचारका उपयोग राजनीतिक शक्ति और व्यापारिक प्रयोजनोंके लिये किया जा रहा है। हमारी सम्मतिमें धर्म-प्रचारकी जो रीति और नियम पाचात्य जगतने ग्रहण किया है यह सिद्धान्तरूपेण बहुत ही खराब है। धर्म- प्रचारका राजनीतिक सत्ताके लिये और राजनीतिक सत्ताका आर्थिक लाभके लिये उपयोग करना अतीय नीचता है। हमारी यह प्रतिशा है कि न हिन्दुमोंने, न यौद्धोने और न जैनोंने धर्मको राजनीतिफ सत्ताको सीढ़ो पनाया। इस दृष्टि से हिन्दू-सभ्यता यूरोपीय सभ्यतासे अनेक अंशोंमें उच्च और उत्तम समस्त संसारमें एक धर्म स्थापित करनेकी चेष्टा करना प्रकृति के विरुद्ध है। धर्मका सम्बन्ध प्रत्येक मनुष्यकी आत्मासे है। घास्तवमें किन्ही,दो मनुष्योंका धर्म एक नहीं हो सकता। कहा जा सकता है कि धर्मके प्रचारसे उतना सिद्धान्तका प्रचार अभीष्ट नहीं जितना कि धार्मिक मर्यादाका है। संसारको एक ही धार्मिक मर्यादामें ढालने या एक ही धार्मिक नियमका अनुयायी बनानेकी चेष्टा भी प्रकृति के विरुद्ध है, सिद्धान्तकंपसे थशुद्ध है और क्रियात्मिकरूपसे असम्भव है। यदि कभी यद असम्भव सम्भव हो गया तो संसार बड़ा नीरस और आलस्यका स्थान हो जायगा। संसार अपने विश्वास और रीतिनोतिमें स्वतन्त्रता-पूर्वक मत-भेद रखते हुए भी परस्पर द्वेप, शत्रुता, लड़ाई और उपद्रयसे किस प्रकार अलग रह सकता है, इसपर विशद चलाने के लिये यह उपयुक्त स्थल नहीं ।