पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/३७०

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भारतवपका इतिहास हो न कतराये और किसी प्रकारके कामको घृणाकी दृष्टिसे न देले । परन्तु दूसरोंके लिये वेतन लेकर काम करना मानों अपनी काम करनेकी शक्तिको बेचना है। यह मानवी महत्ताका उच्च आदर्श नहीं। इसको श्रमकी महत्ता नहीं कहते । हिन्दुओंने यह भूल की कि उन्होंने धार्मिक हिन्दुओंकी भूल । पवित्रता और शौचकी द्वष्टिसे प्रायः प्रत्येक . व्यवसाय और शिल्पको नीच बना दिया। चमडेका काम करने घालों, फसाइयों, चापडालों आदिसे आरम्भ करके उन्होंने शनैः शनैः सभी शिल्पों ओर व्यवसायोंको घृणाकी दृष्टिसे देखना भारम्भ कर दिया । यहांतक कि सम्भ्रान्त काम केवल दो तीन रह गये । अर्थात ब्राह्मणका कर्म, क्षत्रियका कर्म और वाणि. ज्यका काम । यह भूल हिन्दू-धर्मके अधःपतनके कालकी है, क्योंकि हिन्दू इतिहासमें इस प्रकारकी पर्याप्त साक्षी मिलती है कि पचीस सौ वर्ष के पहले हिन्दुओंमें प्रत्येक प्रकारका शिल्प सम्मानकी दृष्टिसे देखा जाता था और शिल्पियों को समाजकी उच्च श्रेणियों में गिना जाता था। यदि वर्तमान स्मृतियोंकी आज्ञाओंको देखा जाय तो बहुत थोड़े व्यवसाय ऐसे रह जाते हैं जिनको स्मृतिकारीने पसन्द किया और इस योग्य समझा हो कि उनसे सम्बन्ध रखनेवालोंके घरका खाना या ब्राह्मणोंके लिये उनसे: दान लेना उचित ठहराया हो। कहा जा सकता। है कि ये वन्धन ब्राह्मणों के आध्यात्मिक लाभके लिये थे, उनसे शिल्पियोंको नीचठहराना अभीष्ट नथा। परन्तु हम इस युक्तिको नहीं मान सकते, क्योंकि पास्तवमें ही परिणाम यह हुआ है कि व्यवसायियों और.श्रमजीवियोंको हिन्दु-समाजमें घृणाकी दृष्टि से देखा जाता है। हमारे दुर्भाग्यसे अंगरेजी शिक्षाने भी इसे घृणाको कम करने के स्थान में इसकी वृद्धि ही की हैं। इस सम्बन्ध- . .