पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/४२४

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३८२. भारतवर्षका इतिहास प्रचलित कानूनों और रीति-नीतिफो नष्ट नहीं करना चाहिये। शास्त्रों में इस यातका प्रबंध किया है कि यदि किसी यात तत्सम्बन्धी कानूनके विषयमें सन्देह हो तो पण्डितोंसे व्यवस्था लेनी चाहिये । गौतम-शास्त्रमें इष प्रपोजनके लिये दस पंडितों. की परिपद् नियुक्त करनेकी आशा है। बौद्धायन मृपिने भी ऐसा ही नियम यतलाया है। डाफर बंद्योपाध्यायको सम्मतिमें यह परिषद एक प्रकारसे कानून बनानेवाली समाका काम देती थी। परन्तु कानूनका बनाना इसका वास्तविक काम न था। यह केवल कानूनकी व्याख्या करनेके लिये थी। वसिष्ठने एक स्थानपर लिखा है कि यदि सहस्र ब्राह्मण ऐसे इकठे हो जायं जो धर्मात्मा नहीं हैं और जिन्होंने अपने कर्तव्योंको पूरा नहीं किया, और जिनको वेदोंका ज्ञान नहीं, तो वे धर्मतः कानून की व्याख्या नहीं कर सकते। इसके विपरीत पांच यो तीन, परन् एक भी सच्चा ब्राह्मण, जो निर्दोष हो, व्यवस्था दे सकता है। राजकीय कानून । प्रयासम्बन्धी बातोंके विषयमें फिर भी यह यात प्रकट है कि हिन्दू राजा पाहाये निकालते थे और अदालती अर्थात् जुडीशल रूपसे कानूनोंकी व्याख्या भी करते थे। अदालती अमलदारी। वैदिक साहित्यमें दीवानी और फौजदारी अदालतोंका' उल्लेख नहीं है । इससे यह प्रतीत होता है कि अदालती कारो- चार प्रायः वंशों और विरारियोंकी पञ्चायतों में होता था । परन्तु सूत्रोंके कालमें नियमबद्ध अदालतोंका वर्णन है । हिन्दू-इतिहास- को पढ़कर सामान्यतः यह प्रतीत होता है कि बहुतसा अदालती काम ग्राम्य पञ्चायतोंमें और विरादरियों, 'वंशव्यवसायों और शिल्पोंकी समितियों में हो जाता था। केवल 'घोर अपराध या