पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/४२५

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हिन्दुओंकी राजनीतिक पद्धति ३८३. ऐसे ममियोग राज्यकी अदालतोंके लिये याकी रह जाते थे, जो भिन्न भिन्न ग्रामों या भिन्न भिन्न उपनगरों या मिन्न भिन्न व्यवसायियोंके बीच हों। वृहस्पतिके कथनानुसार चार प्रकार. की न्याय-सभायें थीं। (१) स्थानीय । (२) अ-स्थानीय, जिनमें जगम या दौरा करनेवाली अदालतें भी सम्मिलित थीं। (३) वेजिनके पास राजाकी छाप रहती थी! (8) वे जिनमें राजा स्वयं प्रधान होता था। सयसे बड़ी अदालत वह थी जिसका प्रधान राजा होता था। इसे याजकलकी विलायतकी प्रिवी कौंसिल समझिये। दुसरे दर्जेको अदालतें ये थीं जिनमें राजाकी ओरसे नियुक किया हुआ चीफ जज या अध्यक्ष या सभापति होता था। ये सब अदालतें ऐसी थीं जिनमें एकसे अधिक जज होते थे। मनु. स्मृतिमें एक अदालतके लिये तीन जज और एक चीफ जज नियत किये गये हैं। चाणक्यके अर्थ-शास्त्र में छः जजोंका होना आवश्यक यतलाया गया है, जिनमेंसे तीन राजकर्मचारीहों और तीन गैर-सरकारी विद्वान हों। वृहस्पतिक शास्त्रमें यह भी लिखा है कि अध्यक्ष अर्थात् चीफ जस्टिसको चाहिये कि तीन सदस्योंकी सहायतासे अभियोगोंका निर्णय किया करे। शुक्र. नीतिमें लिखा है कि राजाको कभी अकेले अदालतका काम नहीं करना चाहिये और अदालतके लिये तीन या पांच या सात जजोंका होना आवश्यक बताया गया है। जजोंके निर्वाचन या नियुक्तिके किस प्रकारफे मनुष्य विषयमें हिन्दू-शास्त्रोंमें उसी प्रकार जज बनाये जाये। रके नियम मौजूद हैं जैसे कि.मन्त्रियोंके