पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/४५२

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आथ्यों का मूल स्थान और चेदोंकी प्राचीनता ४०६ अध्यापक श्रीयुत अविनाशचन्ददास नामके एक बङ्गाली विद्वानने "ऋग्वेदिक इण्डिया" नामक पुस्तकमे .संग्रह किया है। श्री. अविनाशचन्द्रदासके परिणाम निश्चय ही वैसे महत्व और मूल्यके योग्य हैं जैसे कि दूसरे विचारों के पक्षपोषकोंके परिणाम हैं। हमारी सम्मतिमें किसी भी व्यक्तिके पास कोई ऐसा प्रयल या अकास्य प्रमाण नहीं है जिससे इस प्रश्नका निश्चयात्मक रूपसे निर्णय हो सके। श्रीयुत दासने अपने परिणामोंकी पुष्टिमें आगे लिखे शास्त्रोंके प्रमाण उपस्थित किये हैं:- (१) उनका सबसे बड़ा आधार भूतच्य विद्याके अन्वेषण हैं। भूतत्वविदोंने इस यातको प्रमाणित ठहराया है कि किसी प्राचीन कालमें जो लाखों वपातक पहुंचता है भारतका मान- चित्र वह न था जो अय है। जो प्रदेश अब गङ्गा और यमुनाके जलोंसे सींचा जाता है वहां उस समय समुद्र था। और यह समुद्र राजपुतानाके सीमान्तसे लेकर आसामतक फैला हुआ था। वर्तमान अवध, आगरा, इलाहावाद, बिहार और बङ्गालके प्रान्त सब जल-मग्न थे। इस समुन्द्रका नाम पूर्वी समुद्र कहा जाता है। जहां अब राजपूतानेको मरुभूमि है वहां भी उस समय समुद्र था। इस समुद्रका नाम उन्होंने राजपूताना सागर रक्खा है। उस समय अरव सागर भी उसी स्थानतकं पहुचता था जहां पक्षावकी पांचों नदियां सिन्धुमें मिलती हैं। इसके अतिरिक हिमालयके उत्तरमें तुर्किस्तानसे लेकर कृष्ण सागर- तक एक समुद्र था जो पूर्चसे पश्चिमकी ओर झील कालसे लेकर कृष्ण सागरतक और उत्तरसे दक्षिणकी ओर यूराल गिरि मालासे चलकर, उत्तरीय, मागरतक फैला हुआ था। कृष्ण सागर कास्पियन सागर, अराल सागर और मील बलकाश .ये सब उसी सागरके भग्नावशेष हैं।.यह भी कहा जाता है कि ।