पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास 2.pdf/१५७

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महायुद्ध में भारत १४७ १५-जब सर प्रतापसिंह के लेपालक पुत्र ईदर के राजा से एक अंगरेज़ अफ़सर ने फ्रान्स में पूछा कि क्या तुम जानते हो कि इस युद्ध का कारण क्या है ? तो उन्होंने उत्तर दिया "हां! यह धर्मयुद्ध है। भारत अपना कर्तव्य पालन करना चाहता है। वह अपने कर्तव्य को भलीभांति जानता है। यह कर्तव्य अंगरेज योधाओं के साथ साथ सम्राट के लिये लड़ना है। इसके लिये भारत की प्रशंसा करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। कारण यह कि कर्तव्य पालन सब से बड़ा सम्मान है। हमें इसका अभिमान है, कि सम्राट ने हमें इस युद्ध में अपनी सहायता में लड़ने के लिये याद किया है। हम जो यहां आये हैं बड़े प्रसन्न हैं, और जो नहीं आये, वहीं रह गये हैं, वह दुखी और निराश हैं। उनके दिल टूट गये हैं ; इस कारण से, कि "हमें भी यह अवसर क्यों नहीं मिला। हम, हमारे जवान, हमारी तलवारें हमारे कोष, सारांश यह कि हमारा सर्वस्व सन्नाट का है। हमारे मरने के लिये इस समय एक महा गौरवयुक्त अवसर है एक न्याय अनुकूल और पवित्र कर्म की सहायता में लड़ते हुए प्राण त्यागना बड़ा शानदार है। युद्ध में लड़ते हुए मरना मृत्यु नहीं वरन् अमर पद प्राप्त करना है। कारण यह कि इस मृत्यु से ही हमारा नाम सदा के लिये जीवित रह सकता है।" १६ इस संक्षिप्त सी पुस्तक में फ्रान्स के महायुद्ध का पूरा पूरा वृत्तान्त नहीं लिखा जा सकता, जिस में भारतीय सेनाओं ने भाग लेकर अपने साहस तथा वीरता के ऐसे ऐसे प्रभावशाली काय्य किये हैं जो संसार में सदा याद रहेंगे। रणक्षेत्र में बोरता के लिये सबसे बड़ा पदक "विकोरिया क्रास" है जो अब तक केवल अंगरेज़ सिपाहियों को दिया जाता था, किन्तु इस युद्ध में भारतवासियों को भी दिया गया है। इस युद्ध में अब तक -