पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास 2.pdf/१८८

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भारतवर्ष का इतिहास जाता है पर उनमें छोटो छोटो रकमें जमा नहीं होती और अच्छे से अच्छे बैङ्क के टूटने का डर रहता है। सरकारी बैङ्क टूट नहीं सकता। १६११ ई० में एक करोड़ रुपया डाकखाने के बैकों में जमा था। यह ग़रोवों का बचा हुआ धन है । साल भर में कोई पांच सौ रुपये से अधिक सेविङ्क बैङ्क में जमा नहीं कर सकता और न किसी का पांच हज़ार रुपये से अधिक जमा रह सकता है। १८८३ ई० से सरकारी अफसरों को यह अधिकार दिया गया है कि थोड़े सूद पर और कभी कभी विना सूद के भी ज़मींदारों को रुपया उधार दें जिस से वह बीज या अच्छे ढोर मोल ले सके और जब उपज अच्छी हो तो उधार पाट दें। १९०६ ई० में ऐसे उधार में दो करोड़ रुपया लगा था। गवर्नमेण्ट ने ज़मोंदारी बैङ्क और साझे को जी की सोसाइटियां ( समाज ) स्थापित की। इनका एक एक मेम्बर दूसरों को मदद दे सकता है और दूसरों से मदद सकता है। जिनके पास रुपया होता है वह लोग मिलकर एक बैङ्क बना लेते हैं। ऐसे बैङ्क से थोड़े सूद पर उधार मिल । ऐसे बैकों को सरकार भी रुपया उधार दे देती है कि अपना काम चलायें। ऐसे बैंकों का एक एक मेम्बर उधार पाटने का ज़िम्मेदार होता है इस लिये इन बैकों को लोगों से थोड़े ब्याज पर रुपया मिल जाता है जो ज़मोंदार को निरी अपनो ज़िम्मेदारी पर न मिलता। कोई ज़मींदार आप ले तो रुपया देनेवाले महाजन को सदा यह खटका लगा रहता है कि कदाचित् रुपया न पटै। इस कारण रुपया देनेवाला इस खटके को मिटाने के लिये बड़ा भारो सूद लेता है पर जब बहुत आदमो मिल जायं और सब के सब उधार पाटने का भार अपने जाता उधार