पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास 2.pdf/७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भारतवर्ष का इतिहास उरता था वह पिंडारों में मिल जाता था। इनका न कोई देश था न घर। यह लोग लड़ाई के मर्द न थे। यह लोग इस बात में अपनी बड़ाई समझते थे कि हम इतना जल्द भागते हैं कि हमको कोई पकड़ नहीं सकता। इनका अभिप्राय यह न था कि देश जोतं और राज्य स्थापन करें वरन् यह था कि जो कुछ हाथ जाय लूट पाट के भाग जायं। जो लोग अपना गड़ा छिपा धन बताने में मीन मेष लाते थे उनको बहुत दुख देते थे। उनके तलवों को गरम लोहे की छड़ों से दागते थे; उनके कपड़ों में तेल डालकर आग लगा देते थे। अगले दिनों में यह लोग सिन्धिया और पेशवा की सेना में भरती होकर लूट मार करने जाते थे। जब मरहठे सरदारों ने लूट मार की मुहिम छोड़ दी तो पिंडारे आप लूटने और चौथ उगाहने निकले। इनक कई सरदार थे। इनमें अमोर खां और चोतू सब से बड़े थे। कोई इनका सामना न करता इस कारण इनकी समाज बढ़ते बढ़ते साठ हज़ार को हो गई। ४--बड़े बड़े मरहठे राजा ऊपर से तो अङ्गारेजों से मिले रहते थे और उनके मित्र और सहायक थे पर मन में कुढ़ते थे कि अपना पुराना गौरव हमको फिर मिल जाय और पहिले की नाई फिर लूट खसोट का धन्धा चले; इस लिये छिप छिप कर जैसे हो सकता था पिंडारों की सहायता करते थे। वह यह समझते थे कि पिंडारे अगरेजों को हरा देंगे। और अगरेज़ इनसे न भी हारे तो उनको पिंडारों को लड़ाई से इतनी छुट्टी न मिलेगो कि हम सिर उठायें तो हम से लड़ सकें। ५-यहां पहुंचते ही लार्ड हेस्टिङ्गस ने देखा कि लाई वेलेजली की रोति पर न चला गया और निबल को बलो के विरुद्ध सहायता न दी गई तो थोड़े हो दिनों में भारत की वही 1