पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१०३

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१०-बंगला लिपि. ईस की ११ वीं शताब्दी के पास पास से (लिपिपत्र ३२ से ३५) बंगला लिपि भारतवर्ष के पूर्वी विभाग अर्थात् मगध की तरफ की नागरी लिपि मे निकली है और बिहार, बंगाल, मिथिला, नैपाल, भासाम तथा उडीसा से मिलनेवाले कितने एक शिलालेख, दानपत्र, मिकों या हस्तलिखित पुस्तकों में पाई जाती है. बंगाल के राजा नारायणपाल के समय अर्थात् ई. स. की दसवीं शताब्दी तक तो उधर भी नागरी लिपि का ही प्रचार रहा. उक्त राजा के लेम्बों में केवल 'ए', 'ख' मादि कुछ अक्षरों में बंगला की ओर झुकाव नज़र आना है. ई. स. की ग्यारहवीं शताब्दी के पालवंशी राजा विजयपाल के देवपारा के लेख में ए, ख, अ, त, म, र, ल और स में नागरी से थोड़ी सी भिन्नता है और कामरूप के वैद्यदेव के दानपत', आसामा से मिले हुए बल्लभद्र के दानपत्र' और हस्राकोल के लेग्व' की लिपियों में से प्रत्येक को नांगरी (लिपिपत्र २४-२७) से मिलाया जावे तो अ, इ, ई, ऋ, ए, ऐ, ख, घ, झ, ञ, ट, थ, प, फ, र, श और ष में अंतर पाया जाता है इस प्रकार लम्वनशैली में क्रमशः परिवर्तन होते होते वर्तमान बंगला लिपि बनी. लिपिपत्र ३२ यां. यह लिपिपत्र बंगाल के राजा नारायणपाल के समय के बदाल के स्तंभ के लेख ' और विजय- मन के देवपारा के लेग्न में मय्यार किया गया है. बदाल के लेख से तो मुख्य मुख्य अक्षर ही लिये गये हैं. उनमें 'अ' और 'पा की प्रारंभ की छोटीसी बड़ी लकीर न लगन से उनके रूप नागरी के 'न से बन गये हैं. संभव है कि यह भिन्नता दानपत्र ग्वादनवाले की गलती से हुई हो. देवपारा के लेव में अवग्रह की प्राकृति वर्तमान नागरी के 'इसी है, विसर्ग के ऊपर भी सिर की आड़ी लकीर लगाई है. प' तथा 'य' में विशेष अंमर नहीं है और 'व' और 'घ' में कोई भेद नहीं है. लिपिपत्र २ की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- तस्मिन् सेनाम्यवाये प्रतिसुभटशतोत्सादन (ब्रह्मवादौ स व्र(ब्रह्मक्षत्रियाणामजनि कुलशिरोदाम सामन्तसे- मः । उहौयन्स यदीयाः खलदुदधिजलोलोलशौ- तेषु सेतोः कश्चान्तेष्वसरोभिदशरथतनयस्पर्दया युद्धगाथाः ॥ यस्मिन्न सकरपत्वरे पटुरटत्तर्योप- १ देखो लिपिपत्र ३२. २ मेमॉयर्स ऑफ एशिप्राटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल, जिल्ल ५, प्लेट २४ की अंतिम पंक्ति में 'वैशाख्या' का २. पं.जि १, पृ. ३०८ के पास का सेट ५. जि २, पृ ३५२ और ३५३ के बीच के ४ मेट . . जि.२, पृ.१८४ और १५ के बीच के लेट.. जगा ए. सोईस १९०८, पृ. ४६२. ..जि. २, पृ. १६१ के सामने का लेट. ८. ऍ.जि १, पृ. ३०८ के पास का मेष्ट .ये मूल पंक्तियां देवपारा के लेख से है