पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१४७

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क. है कि 'हिंदलोग अपनी वर्णमाला के अक्षरों को अंकों के स्थान में काम में नहीं लाते जैसे कि हम हि वर्णमाला के क्रम से अरबी अक्षरों को काम में लाते हैं. हिंदुस्तान के अलग अलग हिस्सों में जैसे अक्षरों की प्राकृतियां भिन्न हैं वैसे ही संख्यासूचक चिहां की भी, जिनको अंक कहते हैं, भिन्न हैं जिन अंकों को हम काम में लाने हैं वे हिंदुओं के सब से सुंदर अंकों से लिये गये हैं...जिन भिन्न भिन्न जातियों से मेरा संपर्क रहा उन सबकी भाषाओं के संख्यासूचक क्रम के नामों ( इकाई, दहाई, सैंकड़ा आदि ) का मैंने अध्ययन किया है जिसमे मालूम हुमा कि कोई जाति हज़ार मे भागे नहीं जानती. अरब लोग भी हजार तक [ नाम] जानते हैं इस विषय में मैंने एक अलग पुस्तक लिम्वा है. अपन अंकक्रम में जो हज़ार में अधिक जानते हैं वे हिंदू हैं. वे संख्यामचक क्रम को १८ वें स्थान तक ले जाते हैं जिसको ‘परार्द्ध' कहत हैं. अंकगणित में हिंद लोग अंकों का उमी तरह प्रयोग करते हैं जैसे कि हम करते हैं मैंने एक पुस्तक लिम्ब कर यह बतलाया है कि इस विषय में हिंदू हमसे कितने भागे बड़े हुए हैं' अलबेऊनी का, जो अरयों तथा हिंदुओं के ज्योतिष और गणितशास्त्र का अपूर्व जाता था और जिसने कई बरम तक हिंदुस्तान में रहकर मंस्कृत पड़ा था इतना ही नहीं किंतु जो संस्कृत में अनुष्टुभ छंद भी बना लेता था और जिमको हम देश का व्यक्तिगत अनुभव था, यह कथन कि 'जिन अंकों को हम काम में लाने हैं वे हिंदुओं के मघ मे सुंदर अंकों मे लिये गये हैं, मि. के के विचार में ठीक न जचा परंतु १५ वीं शताब्दी के आसपास के शब्दव्युत्पत्तिशास्त्र के ज्ञाता फ्रीरोज़ अबदी का. जी गणितशास्त्र का ज्ञाता न था, 'हिंदसह शब्द की उत्पत्ति 'अंदाज़ह' शब्द मे बतलाना ठीक जच गया जिमका कारण यही है कि पहिले का लेम्च मि के के विरुद्ध और मरे का अनुकूल था 'एनमाइक्लोपीडिया ब्रिटॅनिका' नामक महान अंग्रेजी विश्वकोष की १७ वीं जिल्द के ६२६ वें पृष्ठ पर नानाघाट के लेम्ब के, भारतीय गुफाओं के लेखों के आर १० वीं शताब्दी के नागरी के अंक दिये हैं और उनके नीचे ही शीराज़ में लिखी हुई १० वीं शताब्दी की एक अरयी पुस्तक के भी अंक दियं हैं जो वस्तुतः प्राचीन नागरी ही हैं; उनमें केवल ४ के अंक को टंदा और को उलटा लिम्वा है याकी कोई अंतर नहीं है. अरबी, फारसी और उर्दू तक के अंक, उन लिपियों की लेग्वनशैली तथा सेमेटिक अंकों के अनुसार दाहिनी ओर मे बांई ओर न लिग्वे जा कर हिंदू रीति से ही बाई भोर मे दाहिनी ओर अब तक लिम्व जाते हैं. ऐसी दशा में अल्बेरुनी और मि. में से किसका कथन यथार्थ है यह पाठक लोग स्वयं जान सकेंगे शों से अंक बतलाने की भारतीय शैली आर्य लोगों में वेदमंत्रों में स्वरों की अशुद्धि यजमान के लिये नाश का हेतु मानी जाती थी इस लिये वेदों का पठन गुरु के मुख से ही होता था और वे रट रट कर स्वरसहित कंटस्थ किये जाते थे (देखो, ऊपर पृ. १३-१४ ). उसी की देखादेखी और शास्त्र भी कंठस्थ किये जाने खगे और मुखस्थ विद्या ही विद्या मानी जाने लगी. इसी लिये सूत्रग्रंथों की संक्षिप्त शैली से रचना हुई कि वे आसानी से कंठ किये जा सकें और इसी लिये ज्योतिष, गणित, वैद्यक और कोश मादि के ग्रंथ भी श्लोकबद्ध लिम्वे जाने लगे. अन्य विषय के ग्रंथों में तो अंकों का विशेष काम नहीं रहता था परंतु ज्योतिष और गणित संबंधी ग्रंथों में लंबी लंबी संख्याओं को ..सा, प्र..जि. १, पृ. १७४, १७७