पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/२९

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३ भारतवर्ष में लिखने के प्रचार की प्राचीनता (५२७-८४) ४४३ का ' होगा. इमकी लिपि अशोक के लेग्वों की लिपि से पहिले की प्रतीत होती है. इसमें वीराय' का 'वी' अक्षर है. उक्त 'वी में जो 'ई' की मात्रा का चिन्ह ( है वह न तो अशोक के लेखों में और न उनसे पिछले किसी लेग्य में मिलता है, मत एव वह चिन्ह अशोक से पूर्व की लिपि का होना चाहिये, जिसका व्यवहार अशोक के समय में मिट कर उसके स्थान में नया चिन्ह । बर्ताव में आने लग गया होगा'. इसरे अर्थात् पिप्रावा के लेग्य से प्रकट होता है कि बुद्ध की अस्थि शाक्य जाति के लोगों ने मिलकर उम(स्तृप)में स्थापित की थी. इस लेग्व को बूलर ने अशोक के समय से पहले का माना है. वास्तव में यह बुद्ध के निर्वाणकाल अर्थात् ई.म. पूर्व ४८७ के कुछ ही पीछे का होमा चाहिये. इन शिलालेग्वों से प्रकट है कि ई.म. पूर्व की पांचवीं शताब्दी में लिग्वने का प्रचार इम देश में कोई नई बात न थी. भारतवर्ष मेरा निमार्कम' कहता है कि यहां के लोग ई (या रूई के चिथड़ों) को कूट कूट कर नामी सबक लिग्वने के वास्ते कागज बनाते हैं. मॅगेस्थिनीज़ लिखता है कि 'यहां पर . महामहोपाध्याय डॉ माशचंद्र विद्याभूषण ने भी इस लेख को वीर संघत् ८४ का माना है. अशोक के समय अथवा उममे पूर्व व्यंजन के माथ जुईन वाली म्बरों की मात्रात्रों में से केवल 'ई' की प्राचीन मात्रा लुम होकर उसके स्थान में नया चिन्ह काम में आने लगा ऐमा ही नहीं, किंतु 'श्री' को मात्रा में भी पग्वि- नन हुआ होगा क्योकि महाक्षत्रप रुटामन के गिरनार के लेख में श्री की मात्रा नीन प्रकार से लगी है : - 'पी' के साथ पक प्रकार की 'नौ' और 'मा' के साथ दूसरे प्रकार की ओर 'यो के माथ नीमरी तरह की है ( देखो लिपिपत्र = वां). इनमें से पहिले प्रकार की मात्रा तो अशोक के लेखों की शैली की है (श्री की मात्रा की बाई तरफ एक और बाड़ी लकीर जोड़ी गई है ), पग्नु दूसरे प्रकार की मात्रा की उत्पनि का पता अशोक के लखों में नहीं लगता और न पिछले किसी लेख में उसका प्रचार पाया जाना है, जिसमे यही अनुमान होता है कि उसका रूपांतर अशोक से पूर्व ही हो गया हो और किमी लेखक को उसका ज्ञान होने से उसने उसका भी प्रयोग किया हो, जैसे कि कुटिल लिपि की श्रा को मात्रा (जो व्यंजन के ऊपर लगाई जाती थी) का लिखना उस समय मे कई शतानी पूर्व मे ही उठ गया है और उसके स्थान में व्यंजन की दाहिनी ओर एक खड़ी लकीर लगाई जाती है परंतु कितने एक पुम्नकलेखको का अब भी उसका भान है और जब वे भूल में कही 'पा की मात्रा छोड़ जाने हैं और व्यंजन की दाहिनी और उसकं लिखने का स्थान नहीं होना नत्र वे उसके ऊपर कुटिल लिपि का चिन्ह लगा देते हैं जिम पत्थर के पात्र पर यह लेख खदा है वह इस समय कलकन के इंडिअन म्यूजियम में है. ज.गें । मो. सन १८१८. पृ. ३८६ बुद्ध का देहांत (निवारण) ईम. पूर्व ४८७ के करीब कुसिनार नगर में हुआ उनके शरीर को चन्दन की लकड़ियों में जला कर उनकी जली हुई अस्थियों के - हिम्मे किये गये और गजगृह, वैशाली, कपिलवस्तु, अल्लकप्प. राम- ग्राम, पावा. बैठदीप और कुसिनार बालों में उन्हें लेकर अपने अपने यहां उनपर स्तूप यनवार्य कपिलवस्तु शाक्यगज्य की गजधानी थी और बुद्ध वहीं के शाक्यजाति के गजा शुद्धोदन का पुत्र था अन ण्व पिप्रावा के स्तूप मे निकली हुई अस्थि कपिलवस्तु के रिम्से की, और यहां का मतृप बुद्ध के निर्वाण के समय के कुछ ही पीछे का बना हुआ, होना चाहिये रोमा मानने में लिपिमंबंधी कोई भी बाधा नहीं मानी. ई म. पूर्व ३२६ में भारतवर्ष पर चढ़ाई करनेवाले यूनान के बादशाह अंलकजेंडर (मिकंदर) के सेनापतियो में से एक निमार्कस भी था यह उसके साथ पंजाब में रहा और वहां से नावों द्वाग जो मेना लड़ती मिड़ती सिधु के मुख मक पहुंची उसका सेनापति भी वही था. उमने इम चढ़ाई का विस्तृत वृतांत लिखा था. जिसका खुलासा एगि- अन् ने अपनी इंडिका' नामक पुस्तक में किया मॅक्समूलर का लिखना है कि निमार्कस भारतवासियों का मई मे कागज़ बनाने को कला का जानना प्रकट करना है. में हि.ए.मं लि पृ.३६७ . € 3 5 ई.स. पूर्व ३०६ के प्रामपाम मीरित्रा यादशाह मेल्युकस (Suk.in Vikator) ने मॅगस्थिनीज़ नामक