पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/४०

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१४ प्राचीनलिपिमाला. वन की तरह समर्थ मानी जाती थी', बिलकुल न होने पावे. इसी लिये वैदिक लोग न केवल मंत्रों को, परंतु उनके पदपाठ की, और दो दो पद मिला कर क्रमपाठ को, और इसी तरह पदों के उलट फेर से घन, जटा मादि के पाठों को स्वरसहित कंठस्थ करते थे. गुरु मंत्र का एक एक अंश शिष्यों को सुनाना और वे उमे ज्यों का त्यों रट कर कंठस्थ करते, फिर पूरा मंत्र सुन कर उसे याद कर लेते. ऋग्वेद के ममय में वेदों के पढ़ने की यही रीति थी और अब तक भी कुछ कुछ चली मानी है, परंतु यह पठनशैली केवल वेदों के लिये ही थी, अन्यशास्त्रों के लिये नहीं. वेदों के पठन की यही रीति, जिसमे स्वरों का शुद्ध ज्ञान होता था, बनी रहे और श्रोत्रिय ब्राह्मणों का आदर घट न जाय, इसी लिये लिग्विन पुस्तक पर से वेदों का पढ़नां निषिद्ध माना गया है, परंतु लिग्विनपाठक को अधमपाठक कहना ही सिद्ध करता है कि पहिले भी वेद के लिम्वित पुस्तक होते थे और उनपर से पड़ना सरल समझ कर लोग उधर प्रवृस होते थे. इमी लिये निषेध करना पड़ा कि प्राचीन रीति उच्छिन्न न हो और स्वर आदि की मर्यादा नष्ट न हो. इम लिये वेद के पुस्तक लिग्वने का पेशा करना और पुस्तकों को बेचना पाप माना गया है. वंद के पुस्तक विस्मृति में सहायता के लिये अवश्य रहते थे और व्याख्यान, टीका, व्याकरण, निरुक्त, प्रातिशास्य आदि में सुभीत के लिये उनका उपयोग होता था. वेद के पठनपाठन में लिग्वित पुस्तक का अनादर एक प्राचीन रीति हो गई और उसीकी देम्वादेखी और शास्त्र भी जहां ना हो सके कंठस्थ किये जाने लगे, और, अयतक जो विद्या मुग्वस्थ हो वही विद्या मानी जाती है. कोई श्रोत्रिय पुग्नक हाथ में लेकर मंत्र नहीं पड़ना था, होता स्तोत्र जबानी मुनाना और उदाता समय समय पर साम भी मुग्व में सुनाता. अबतक भी अच्छे कर्मकांडी सारी विधि और मारे मंत्र मुग्व में पड़ने हैं, ज्योनिधी या वैद्य या धर्मशास्त्री फल कहने, निदान करने और व्यवस्था देने में श्लोक मुनाना ही पांडित्य का लक्षण समझने हैं, यहां तक कि वैयाकरण भी वही मराहा जाना है जो विना पुस्तक दंग्वे महाभाष्य पड़ा दे. वेदमंत्रों के शुद्ध उच्चारण की और यज्ञादि कर्मों में जहां जो प्रमंग पड़े वहां तन्क्षण उस विषय के मंत्रों को पढ़ने की आवश्यकता नया वेदमयंधी प्राचीन गति का अनुकरण करने की मचि, इन तीन कारणों से हिंदुओं की परिपाट। शताब्दिों में यही गई कि मस्तिष्क और स्मृति ही पुस्तकालय का काम दे. इसी लिये सूत्रग्रंथों की संक्षेपशैली से ५ 'दु र बरभी वर्ग ना ब. मिय्य पयतः न न मयं मह म बरसन न पचन्द्र र नपगाधान ॥ पतंज- लिका महामाप्य, प्रथम पाहिक). २ ऋग्वेद, ७ १०३ ५ 'एक मेंढक दूर्मर की बाली के पाछ यो बोलता है जैसे गुरु के पीछे माखने वाला' (चदंषामन्यों बन्यस्य वाचनाम्यं व बदमि चिमार । • यथेच न्य विज नाह द ल्क्षप्य दिपून प्रदान पिन न ममन म ॥ (कुमारिल का तंत्रवार्तिक, १.३) ४. गोन। साम्रो शिर कम्यो नया नियम पाठक । बनयंज हिपक कप पहेन पटकाधमा ॥ (याज्ञवल्क्य शिक्षा) बंदवियिण व बदामा चंच दुखकः नंदाला नवकाव न च नियमन (महाभारत, अनुशासनपर्व, ६३ २८). महाभारत में जिस प्रसंग में यह श्लोक है वह दान रात्र ब्राह्मणों के विग्य में है यहां पर 'वेदानां दूषकाः' का अर्थ 'वेदो में क्षेपक श्रादि मिलाने वाले' ही है, क्योंकि इस श्लोक से कुछ ही ऊपर इसस मिलता हा 'ममयमा पुषका है जिस का अर्थ 'प्रतिज्ञापत्र या इकरारनामों में घटा बढ़ा कर जाल करने वाले है पुलकस्था तुवा विद्या परसलगत धमम । कार्थकाले तु सा म भ विवान महनम् ॥ (चाणक्यनीति) जो लोग पौनमूत्र, समयाचार(धर्म)मूत्र, गृहामूत्र, गुल्यमूत्र और व्याकरण आदि शास्त्रों के सूत्रों की संक्षिप्त प्रणाली को देख कर यह अटकल लगाते हैं कि लेखनसामग्री की कमी से ये इतने संक्षिप्त और किए बनाये गये और पिछले वैयाकरणों ने आधी मात्रा की किफ़ायत को पुत्रोत्सव के समान हर्षदायक माना घे भूल करने हैं. यदि लेखनसामग्री की कमी से ऐसा करतं नो ब्राह्मण ग्रंथ इतने विस्तार से क्यों लिखे जाने ? यह शैली केवल इसी लिये काम में लाई गई कि