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श्रीचंद्रावली

पर जी इसी भरोसे पर फूला जाता है कि अच्छा सगुन हुआ है तो जरूर आवेंगे। ( हँसकर ) हूँ---उनको हमारी इस बखत फिकिर होगी। "मान न मान मैं तेरा मेहमान," मन को अपने ही मतलब की सूझती है। "मेरो पिय मोहि बात न पूछै तऊ सोहागिन नाम"। ( लम्बी साँस लेकर ) हा! देखो प्रेम की गति! यह कभी आशा नहीं छोड़ती। जिसको आप चाहो वह चाहे झूठमूठ भी बात न पूछे पर अपने जी को यह भरोसा रहता है कि वे भी जरूर इतना ही चाहते होगे। ( कलेजे पर हाथ रखकर ) रहो रहो, क्यों उमगे आते हो, धीरज धरो, वे कुछ दीवार में से थोड़े ही निकल आवेंगे।

जोगिन---( आप ही आप ) होगा प्यारी, ऐसा ही होगा। प्यारी, मैं तो यही हूँ। यह मेरा ही कलेजा है कि अंतर्यामी कहलाकर भी अपने लोगो से मिलने में इतनी देर लगती है। ( प्रगट सामने बढकर ) अलख! अलख!

( दोनों आदर करके बैठाती हैं )

ललिता---हमारे बड़े भाग जो आपुसी महात्मा के दरसन भए।

चंद्रा०---( आप ही आप ) न जाने क्यो इस जोगिन की ओर मेरा मन आपसे आप खिंचा जाता है।

जोगिन---भलो हम अतीतन को दरसन कहा, योही नित्य ही घर-घर डोलत फिरै।