पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१००३

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अनुसार भोजन वस्त्र से रक्षा की जाती है वैसे ही सर्व स्वामी परिपूर्ण परमेश्वर की मूर्ति की भी सेवा करना । नित्य सबेरे प्रातः कृत्य से निवृत्त होकर तिलक संध्या करके मंदिर में जाकर पहिले दंडवत करके मार्जनी करना, रात के बरतन धोकर वस्त्रादि जो बदलना हो सब ठीक करके घंटानाद पूर्वक ठाकुर जी को जगाना और मंगल भोग रखकर मंगला आरती करना, फिर स्नान कराकर यथा शक्ति शृंगार करना, फूल की माला पहराना, चरण पर तुलसी समर्पण करके खड़ी मूर्ति हो तो वेणु धराकर दर्पण दिखलाना, श्रद्धा सौकर्य हो तो शृंगार भोग रखकर फिर दूध भोग लगाकर तब राजभोग धरना । न सौकर्य हो तो शृगार पीछे एक ही भोग रखना । आचमन मुख वस्त्र करके बीड़ी समर्पण करके चौपड़ खिलौना आदि सामने घर के आरती करना । फिर सज्जा साज करके किवाड़ बंद कर देना । संध्या को फिर घंटानाद करके जगा कर दिन का पानी आदि बदल कर यथा शक्ति फल भोग रखना सौकर्य हो तो साँझ को भी दो भोग और रखना नहीं तो एक ही बेर सही । फल भोग के पीछे शृंगार उतार कर शयन भोग रखना और दूध रखना । फिर आरती करके शयन कराना । गर्मी हो तो पतली चद्दर, जाड़ा हो तो रजाई उढ़ाना । स्वामिनी जी को साड़ी और खड़े सरूप हों तो तनिया रात को भी रहै । बालसरूप हो तो नंगे ही पौहै । मणि विग्रह हों तो नित्य स्नान नहीं कराना । व्रत के दिन भी ठाकुर जी को नित्य की भांति अन्न आदि समर्पण करना । गर्मी सर्दी का सेवा में बहुत ध्यान रखना । अथ संक्षिप्त निर्णय एकादशी के व्रत का मोटा निर्णय यह है कि पहले दिन पचपन घड़ी से पल भर भी दशमी विशेष हो तो व्रत नहीं करना, द्वादशी को व्रत करना । किंतु निंबार्क संप्नदाय वाले ४५ घड़ी से अधिक दशमी हो तो व्रत नहीं करते । द्वादशी दो हों तो पहिली द्वादशी को व्रत करना । दो एकादशी हो तो दूसरी एकादशी को व्रत करना । पत्रा न मिले और दशमी के समय में कुछ भी संदेह हो तो द्वादशी को व्रत करना । जन्माष्टमी, रामनवमी और नृसिंह जयंती उदयात् लेना और वामन द्वादशी मध्यान्हव्यापिनी, विजय दशमी सायंकाल व्यापिनी । और उत्सव सब संसार में जिस दिन तिथि मानी जाय उस दिन । रास पूर्णिमा जिस दिन चंद्रमा की कला विशेष मिले उस दिन करना। उत्सवावली ९५९