पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१००९

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श्री वल्लभाचार्य कृत चतुश्लोकी श्री हरिश्चन्द्र चन्द्रिका जिल्द १ संख्या ३-१ सितम्बर सन् १८८३ में प्रकाशित श्री बल्लमाचार्यकृत चतुश्लोकी का अनुवाद यह है।-सं. नमः प्रेमपथप्रवर्तकेभ्यः सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो व्रजाधिपः । स्वस्यायमेव धर्मोहि नान्यः क्वापि कथं च न ।।१।। संसार के जीवों को कर्मजाल में वधे देखकर आप परम कारुणिक श्री महाप्रभुजी अन्य साधनों की निवृत्ति के हेतु परम अमृत स्वरूप वाक्य श्रीमुख से आज्ञा करते हैं, सर्वदेति । सब समय में दुःख सुख में खाते पीते उठते बैठते सब क्षण में सर्व भाव से ब्रजाधिप श्रीराधारमण ही का भजन करना क्योंकि भजनीय वही है, और कोई प्रम का बदला नहीं दे सकता और भजन भी सर्व भाव से करना अर्थात् संसार में जितने भाव है ईश्वर भाव, गुरु माव, मित्र भाव, पतिभाव इत्यादि पृथक् भाव जिसमें जिससे हो सब को समेटकर सब भाव से उन्हीं का भजन करना, रीझना भी उन्हीं पर खीझना तो उन्हीं पर, मांगना तो उन्हीं से,लड़ना तो उन्हीं से, जिसमें फिर कहीं और कोई भाव न रह जाय केवल एक अवलंब श्रीकृष्ण ही हो इस पर आप आज्ञा करते हैं कि जो लोग हमारे हैं उनका निश्चय एक यही धर्म है दूसरा कोई धर्म कदापि किसी भांति से नहीं है अर्थात् कर्ममार्ग प्रवर्तकः इस नाम से कोई यज्ञादिकों को ही मुख्य धर्म मान कर इसे छोड़ उसमें प्रवृत्त होकर भ्रांत न हो जायें इस हेतु आप मुक्त कंठ से कहते हैं कि हमारे लोगों का तो मुख्य धर्म यही है कि सर्वदा सर्व भाव से केवल श्रीकृष्ण ही का भजन करना । एवं सर्वेस्स्वकर्तव्य स्वयमेव करिष्यति । प्रभुस्सर्वसमर्थोहि ततो निश्चिततं व्रजेत् ।।२।। अब जो कोई शंका करे कि हम सब छोड़ कर एक श्रीकृष्ण ही को भजें तो हमारा योग-क्षेम पितृ देव कर्मादिक सब कैसे सिद्ध होगा, इस शंका के निवारण के हेतु आप आज्ञा करते हैं कि इन सब बातों की चिंता छोड़ कर जैसा पूर्व में कहा है वैसा ही करो फिर तुम्हारा जो कुछ कर्तव्य है वह सब आप कर लेगा करने न करने अन्यथा करने में और भी सब में वह निश्चय करके समर्थ है इससे आप निश्चिंत हो जाना, जब हमने उसके भरोसे सब छोड़ा है तो वह अंतर्यामी है आप जानता है सब कर लेगा । गीता में उसकी प्रतिज्ञा है कि जो लोग अनन्य होकर मुझे भजते हैं उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ इससे लोक वेद दोनों से निश्चिंत होकर केवल भजन ही करना । चतुश्लोकी ९६५