पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०१०

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यदि श्रीगोकुलाधीशो धृतस्सर्वात्सना हृदि । ततः किमपर ब्रह लौकिकैवैदिकैरपि ।। ३ ।। जो यह शंका करो कि हम लौकिक वैदिक कर्म छोड़ दें तो पतित न हो जायगे उस पर आप आज्ञा करते हैं कि जो श्रीगोकुलाधीश्वर सर्वभाव से एकचित्तता से हृदय में धारण किए गए हैं तो बताओ फिर और किसी लौकिक और वैदिक कर्मों से क्या ? क्योंकि ये तो दोनों रीति से व्यर्थ पड़ते हैं जो श्रीकृष्ण की भक्ति नहीं है तो ये कर्म किस काम के क्योंकि ये परमानंदमय श्रीकृष्ण वियोगदान में समर्थ नहीं हैं और जो श्रीकृष्ण की भक्ति है तब ये किस काम के क्योंकि उसको फिर और कोई कर्म अवशिष्ट नहीं है इससे सर्व प्रकार से अनन्य होकर सर्वांतरयामी एक श्रीकृष्ण ही का भजन करना । तस्मात् सर्वात्मना नित्यं गोकुलेश्वर पादयोः । स्मरणं कीर्तनं चापि न त्याज्यमिति मे मतिः ।। ४ ।। इससे सर्व भाव से आत्मा मन बुद्धि प्राण देह और इंद्रिय सब से नित्य प्रतिक्षण श्रीगोकुलेश्वर जुगल चरणारविंद का स्मरण और कीर्तन कभी नहीं छोड़ना यह श्री महाप्रभु जी आज्ञा करते हैं कि हमारी मति है अर्थात् जो श्रीमहाप्रभु जी के मतावलंबिगन हैं उनको तो सब साधन छोड़ कर एक श्रीकृष्ण ही भजनीय हैं । यह आपने अपना मत दिखाया । श्रीवल्लभाचार्य विरचिता चतुश्लोकी समाप्ता । श्रुति रहस्य यह लेख श्री हरिश्चन्द्र मैगजीन जिल्द १, संख्या ६, मार्च १५ सन् १८७४ में प्रकाशित है।- सं. (नमः श्रीवल्लभाय इतिवाक्यैस्तत्स्वरूपप्रदर्शकाय श्रीगिरिधराय च) वेद के अक्षर कामधेनु हैं और इसी कारण सब मतों के आचार्य लोग उनके जितने अर्थ करते हैं सब मान्य होते हैं । यदि उनमें एक भी न माना जाय तो पूर्वाचार्यों पर आक्षेप होने से न माननेवाले नास्तिक गिने जाते हैं । जैसे 'चत्वारिशृंगा' इस श्रुति का निरुक्तकार, महाभाष्यकार, रामानुजाचार्य, विद्यारण्य इत्यादि ने अनेक प्रकार का अर्थ किया है और ये सब अर्थकार ऐसे हैं कि उनमें से एक के भी मानने बिना काम नहीं चलता तो सिद्धांत यह हुआ कि श्रुति से जितने अर्थ निकलेंगे वे अप्रमाण न होंगे । जैसा चत्वारिशृंगा के यहाँ सब अर्थ दिखाते हैं। चत्वारिशृंगात्रयो अस्य पादा द्वेशीर्षे सप्तहस्तासा अस्य । त्रिधा बद्धा वृषभो रोरवीति महोदेवो मत्या आविवेश ।। १. अक्षरार्थ उसको चार सींग हैं, तीन पैर हैं, दो सिर हैं, सात हाथ है, तीन प्रकार से बंधा हुआ बैल चिल्लाता है, तेज देवता मरनेवालों में घुसा है। अब यह केवल रूपक की भाँति कूट हुआ इसको स्पष्ट करने को २. निरुक्तकार का अर्थ यह श्रुति यज्ञ का प्रतिपादन करती है ; चार वेद इसके चार सींग है ; तीन सवन अर्थात् नीच, मध्य और भारतेन्दु समग्र ९६६