पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०१२

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विनापि कामिनीसंगं कवयः सुखमासते ।। सुभाषितेन गीतेन युवतीनां च लीलया । यस्य न द्रवते चित्तं सबै मुक्तोऽथवा पशुः ।। इशुखुष्ट और ईशकृष्ण यह लेख श्री हरिश्चन्द्र चन्द्रिका खण्ड ६, संख्या ७, जनवरी सन् १८७२ में प्रकाशित है। हालाँकि लेख के अन्त में क्रमश छपा है पर बाकी अंश मिलता नहीं है इस लेख में भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने की चेष्टा है।- सं. पाठक गण को स्मरण होगा कि भारत भिक्षा में " भारत भुज बल लहि जग रच्छित, भारत सिच्छा लहि जग सिच्छित" लिखा है, आज उसी का हम प्रमाण देना चाहते हैं । न्यायप्रियगण देखें कि जैसा भारत भिक्षा में कहा गया वह उचित है कि नहीं । समाज की उन्नति का मूल धर्म है । जहाँ का धर्म परिष्कृत नहीं वहाँ कभी समाज उन्नत नहीं । धर्म पर सब लोगों को ऐसा आग्रह रहता है, कि उसको साक्षात् परमेश्वर से उत्पन्न मानते हैं अतएव अन्य विषयों को छोड़ कर केवल धर्म पर हम विचार किया चाहते हैं और मुक्त कंठ होकर कहते हैं कि संसार के धर्माचार्य मात्र ने भारतवर्ष की छाया से अपने अपने ईश्वर, देवता, धर्म पुस्तक, धर्मनीति और निज चरित्र निर्माण किया है। जितने धर्म प्रचलित है या प्रचलित थे वह सब या तो वैदिकों का अनुगमन हैं या बौद्धों का । यहाँ तक कि प्रसिद्ध ईश्वरवाची शब्द भी इसी से निकले हैं । अंगरेजों में परमेश्वर को गाड (God) कहते हैं । यह गौतम का नामांतर है । उत्तर के देशों में गौतम को गोडमा कहते हैं, इसी से यह गाड शब्द बना । फारसी में मूर्तियों को बुत कहते हैं यह शब्द बुद्ध से निकला । हरम हर्म्य से, सनम शंभु से. देर देवल से, देव देवता से और ऐसे ही देवतावाचक अनेक शब्द दूसरे दूसरों से । यह सब जाने दीजिये सृष्टि के आरंभ से चलिये । भगवान मनु लिखते हैं कि प्रथम सब जगत सुषुप्त Fok*. भारतेन्दु समग्र ९६८