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वैष्णवता और भारतवर्ष

 

इस लेख का उल्लेख 'रामायण का समय' नामक लेख में पहले ही आ चुका है जो सन् १८८४ की रचना है। अतः यह उसके पहले की ही रचना होनी चाहिये।–– सं.

 
यदि विचार करके देखा जायगा तो स्पष्ट प्रकट होगा कि भारतवर्ष का सबसे प्राचीन मत वैष्णव है। हमारे आर्य लोगों ने सबसे प्राचीनकाल में सभ्यता का अवलंबन किया और इसी हेतु क्या धर्म क्या नीति सब विषय के संसार मात्र के ये दीक्षागुरु हैं। आर्यों ने आदिकाल से सूर्य ही को अपने जगत् का सब से उपकारी और प्राणदाता समझ कर ब्रह्म माना और इन का मूल मंत्र गायत्री इसी से इन्हीं सूर्य नारायण की उपासना में कहा गया है। सूर्य की किरणैं 'आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः' जलों में और मनुष्यों में व्याप्त रहती हैं और इस द्वारा ही जीवन प्राप्त होता है इसी से सूर्य का नाम नारायण है। हम लोगों के जगत् के ग्रह मात्र, जो सब प्रत्येक ब्रह्‌माण्ड हैं, इन्हीं की आकर्षण शक्ति से स्थिर हैं, इसी से नारायण का नाम अनंत कोटिब्रह्‌मांडनायक है। इसी सूर्य का वेद में नाम विष्णु है, क्योंकि इन्हीं की व्यापकता से जगत् स्थित है। इसी से आर्यों में सबसे प्राचीन एक ही देवता थे और इसी से उस काल के भी आर्य वैष्णव थे। कालांतर में सूर्य में चतुर्भज देव की कल्पना हुई। 'ध्येयः सदा सवितृ मंडल मध्यवर्ती नारायणःसरसिजासनसनिविष्ट', 'तद्विष्णोः परमं पदम्', 'विष्णो: कर्माणि पश्यत', 'यत्र गावो भूरिशृंगाः', 'इदंविष्णुर्विचक्रमे' इत्यादि श्रुति जो सूर्यनारायण के आधिभौतिक ऐश्वर्य की प्रतिपादक थीं, आधिदैविक सूर्य की विष्णुमूर्ति के वर्णन में व्याख्यात हुई। चाहे जिस रूप से हो वेदों ने प्राचीनकाल से विष्णुमहिमा गाई। उस के पीछे उस सूर्य की एक प्रतिमूर्ति पृथ्वी पर मानी गई, अर्थात् अग्नि। आर्यों का दूसरा देवता अग्नि है। अग्नि यज्ञ है और 'यज्ञो वै विष्णुः' यज्ञ ही से रुद्र देवता माने गये। आर्यों के एक छोड़ कर दो देवता हुए। फिर तीन और तीन से ग्यारह को त्रिविध करने से तैंतीस और इसी तैंतीस से तैंतीस करोड़ देवता हुए। इस विषय का विशेष वर्णन अन्य प्रसंग में करेंगे। यहाँ केवल इस बात को दिखलाते हैं कि वर्तमान समय में भी भारतवर्ष से और वैष्णवता से कितना घनिष्ठ संबंध है। किन्तु योरप के पूर्वीविद्या जाननेवाले विद्वानों का मत है कि रुद्र आदि आर्यों के देवता नहीं हैं[१] वह अनार्यों (Non-Aryan or Tamalian) के देवता हैं। इस के वे लोग आठ कारण देते हैं। प्रथम वेदों में लिंगपूजा का निषेध है। यथा वशिष्ठ इंद्र से विनती करते हैं कि हमारी वस्तुओं को 'शिश्नदेवा' (लिंगपूजक) से बचाओ इत्यादि[२]। ऋग्वेद और अन्यान्य ऋचाओं में भी शिश्नदेवालोगों को असुर, दस्यु इत्यादि कहा है और रुद्री में भी रुद्र की स्तुति भयंकर भाव से की है। दूसरी युक्ति यह है कि स्मृतियों में लिंगपूजा का निषेध है।[३] प्रोफेसर मैक्समूलर ने वशिष्ठस्मृति के अनुवाद के स्थल में यह विषय बहुत स्पष्ट लिखा है। तीसरी युक्ति वे यह कहते हैं कि लिंगपूजक और दुर्गाभैरवादिकों के पूजक ब्राहमण को पंक्ति से बाहर करना लिखा है। (मिताक्षरावृत्त ब्रह्‌मांडपुराण के वाक्य, चतुर्विंशतिमत पराशर व्याख्या में माधव श्लोक २९, आपस्तम्ब, भागवत चतुर्थस्कंध द्वितीयाध्याय २८ श्लोक और धर्माब्धिसार के तीसरे परिच्छेद का पूर्वार्द्ध देखो।) चौथी युक्ति यह कहते हैं कि लिंग का तथा दुर्गा भैरवादि का निर्माल्य खाने में पाप लिखा है।
  1. ऐंटिक्किटीज अव उड़ीसा १ जिल्द १३६ पेज देखो।
  2. Rigveda, IV., P. 6 and Dr. Wilson's Vedic Comments
  3. Professor Max Muller's Ancient Sanskrit Literature, P. 55

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