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कर सके हैं, फिर मुसलमान जो कृस्तानों के अनुगामी हैं वे हमारे अन्वनुगामी हो चुके।

यद्यपि यह निर्णय करना अब अति कठिन है कि अतिप्राचीन के ध्रुव, प्रह्‌लाद आदि, मध्यावस्था के ऊद्धव, आरुणि, परीक्षितादिक और नवीन काल के वैष्णवाचार्यों के खान-पान, रहन-सहन, उपासनारीति, वाह्‌य चिन्ह आदि में कितना अंतर पड़ा है, किन्तु इतना ही कहा जा सकता है कि विष्णु-उपासना का मूल सूत्र अति प्राचीनकाल से अनवच्छिन्न चला आता है। ध्रुव, प्रह्‌लादादि वैष्णव तो थे, किन्तु अब के वैष्णवों की भाँति कंठी, तिलक, मुद्रा लगाते थे और मांस आदि नहीं खाते थे, इन बातों का विश्वस्त प्रमाण नहीं मिलता। ऐसे ही भारतवर्ष में जैसी धर्मरुचि अब है उस से स्पष्ट होता है कि आगे चलकर वैष्णवमत में खाने पीने का विचार छूट कर बहुत सा अदल बदल अवश्य होगा। यद्यपि अनेक आचार्यों ने इसी आशा से मत प्रवृत्त किया कि इसमें सब मनुष्य समानता लाभ कर और परस्पर खानपानादि से लोगों में ऐक्य बढ़े और किसी जाति, वर्ण, देश का मनुष्य क्यों न हो वैष्णवपंक्ति में आ सकै, किन्तु उन लोगों की यह उदार इच्छा भली भाँति पूरी नहीं हुई, क्योंकि स्मार्त मत की और ब्राह्‌मणों की विशेष हानि के कारण इस मत के लोगों ने उस समुन्नत भाव से उन्नति को रोक दिया, जिस से अब वैष्णवों में छूआछूत सब से बढ़ गया। बहुदेवोपासकों की घृणा देने के अर्थ वैष्णवातिरिक्त और किसी का स्पर्श बचाते वहाँ तक एक बात थी, किन्तु अब तो वैष्णवों ही में ऐसा उपद्रव फैला है कि एक संप्रदाय के वैष्णव दूसरे संप्रदाय वाले को अपने मंदिर में और अपने खान पान में नहीं लेते और 'सात कनौजिया नौ चूल्हे' वाली मसल हो गई है। किन्तु काल की वर्तमान गति के अनुसार यह लक्षण उनकी अवनति के हैं। इस काल में तो इस की तभी उन्नति होगी जब इस के वाह्‌यव्यवहार और आडंबर में न्यूनता होगी और एकता बढ़ाई जायगी और आंतरिक उपासना की उन्नति की जायगी। यह काल ऐसा है कि लोग उसी मत को विशेष मानेंगे जिस में वाह्य देह-कष्ट न्यून हो। यद्यपि वैष्णवधर्म भारतवर्ष का प्रकृत धर्म है इस हेतु उस की ओर लोगों की रुचि होगी, किन्तु उसमें अनेक संस्कारों की अतिशय आवश्यकता है। प्रथम तो गोस्वामीगण अपना रजोगुणी-तमोगुणी स्वभाव छोड़ेंगे तब काम चलेगा। गुरु लोगों में एक तो विद्या ही नहीं होती, जिसके न होने से शील, नम्रता आदि उनमें कुछ नहीं होते। दूसरे या तो वे अति रूखे क्रोधी होते हैं या अति बिलासलालस होकर स्त्रियों की भाँति सदा दर्पण ही देखा करते हैं। अब वह सब स्वभाव उनको छोड़ देना चाहिए, क्योंकि इस उन्नीसवीं शताब्दी में वह श्रद्धाजाड्‌य अब नहीं बाकी है। अब कुकर्मी गुरु का भी चरणामृत लिया जाय वह दिन छप्पर पर गए। जितने बूढ़े लोग अभी तक जीते हैं उन्हीं के शील संकोच से प्राचीनधर्म इतना भी चल रहा है, बीस पचीस बरस पीछे फिर कुछ नहीं है। अब तो गुरु गोसाईं का चरित्र ऐसा होना चाहिए कि जिस को देख सुन कर लोगों में श्रद्धा से स्वयं चित्त आकृष्ट हो। स्त्रीजनों का मंदिरों से सहवास निवृत्त किया जाय। केवल इतना ही नहीं, भगवान श्री कृष्णचन्द्र की केलिकथा जो अतिरहस्य होने पर भी बहुत परिमाण से जगत् में प्रचलित है वह केवल अंतरंग उपासकों पर छोड़ दी जाय, उनके माहात्म्य मत विशद चरित्र का महत्व यथार्थ रूप से व्याख्या कर के सब को समझाया जाय। रास क्या है, गोपी कौन है, यह सब रूपक अलंकार स्पष्ट कर के श्रुतिसम्मत उनका ज्ञान वैराग्य भक्तिबोधक अर्थ किया जाय। यह भी दबी जीभ से हम डरते डरते कहते हैं कि व्रत, स्नान आदि भी वहीं तक रहैं जहाँ तक शरीर को अति कष्ट न हो। जिस उत्तम उदाहरण के द्वारा स्थापक आचार्यगण ने आत्मसुख विसर्जन कर के भक्ति सुधा से लोगों को प्लावित कर दिया था उसी उदाहरण से अब भी गुरु लोग धर्म प्रचार करैं। वाह्‌य आग्रहों को छोड़ कर केवल आंतरिक उन्नत प्रेममय भक्ति का प्रचार करैं, देखैं कि दिग्दिगंत से हरिनाम की कैसी ध्वनि उठती है और विधर्मीगण भी इसको सिर झुकाते हैं कि नहीं और सिक्ख, कबीरपंथी आदि अनेक दल के हिन्दूगण भी सब आप से आप बैर छोड़ कर इस उन्नतसमाज में मिल जाते हैं कि नहीं।

जो कोई कहै कि यह तुम कैसे कहते हो कि वैष्णवमत ही भारतवर्ष का प्रकृत मत है तो उस के उत्तर में हम स्पष्ट कहेंगे कि वैष्णव मत ही भारतवर्ष का मत है और वह भारतवर्ष कह हड्डी लहू में मिल गया है। इस के अनेक प्रमाण हैं, क्रम से सुनिए (१) पहले तो कबीर, दादू, सिक्ख, बाउल आदि जितने पंथ हैं सब वैष्णवों की शाखा प्रशाखायें हैं और सारा भारतवर्ष इन पंथों से छाया हुआ है। (२) अवतार और किसी देव का नहीं, क्योंकि इतना उपकार ही [दस्यु दलन आदि] और किसी से नहीं साधित हुआ है। (३) नामों को लीजिए तो क्या स्त्री, क्या पुरुष, आधे नाम भारतवर्ष के विष्णुसंबंधी हैं और आधे में जगत् है। कृष्णभट्ट, रामसिंह,

भारतेन्दु समग्र ९७४