पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०२०

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हैं, अन्य देवताओं का कहीं कुछ नाम नहीं है। (३०) सूर्यचंद्रवंशी क्षत्री लोग श्री राम कृष्ण के वंश में होने का अब तक अभिमान करते हैं। (३१) ब्राह्‌मणगण ब्रह्‌मण्य देव कह कर अब तक कहते हैं 'ब्राह्‌मणो मामकीतनुः'। (३२) औषधियों में भी रामबाण, नारायणचूर्ण आदि नाम मिलते हैं। (३३) कार्तिकस्नान, राधा दामोदर की पूजा, देखिए, भारतवर्ष में कैसी है। (३४) तारकमंत्र लोग श्रीरामनाम ही को कहते हैं। (३५) किसी हौस में चले जाइए तूल के थान निकलवा कर देखिए उस पर जितने चित्र विष्णुलीला संबंधी मिलैंगे अन्य नहीं। (३६) बारहो महीने के देवता विष्णु हैं। ऐसी ही अनेक अनेक बातें हैं। विष्णुसंबंधी नाम बहुत वस्तुओं के हैं, कहाँ तक लिखे जायँ। विष्णुपद (आकाश), विष्णुरात (परीक्षित), रामदाना, रामधेनु, रामजी की गैया, रामधनु (आकाश धनु), रामफल, सीताफल, रामतरोई, श्रीफल, हरिगीती, रामकली, रामकपूर, रामगिरी, रामचंदन, रामगंगा, हरिचंदन, हरिसिंगार, हरिकेला, हरिनेत्र (कमल), हरिकेली (बंगल देश), हरिप्रिय (सफेदचंदन), हरिवासर (एकादशी), हरिबीज (बंगनीबू), हरिवर्षखंड, कृष्णकली, कृष्णकंद कृष्णकांता, विष्णुक्रांता (फूल), सीतामऊ, सीतावलदी, सीताकुण्ड, सीतामढ़ी, सीता की रसोई, हरिपर्वत, हरि का पत्तन, रामगढ़, रामबाग, रामशिला, रामजी की घोड़ी, हरिपदा (आकाशगंगा), नारायणी, कन्हैया आदि नगर नद नदी पर्वत फलफूल के सैकड़ों नाम हैं। (जले विष्णुः स्थले विष्णुः) सब स्थान पर विष्णु के नाम ही का संबंध विशेष है। आग्रह छोड़ कर तनिक ध्यान देकर देखिए कि विष्णु से भारतवर्ष से क्या संबंध है, फिर हमारी बात स्वयं प्रमाणित होती है कि नहीं कि भारतवर्ष का प्रकृत मत वैष्णव ही है।

अब वैष्णवों से यह निवेदन है कि आप लोगों का मत कैसी दृढ़ भित्ति पर स्थापित है और कैसे सार्वजनीन उदारभाव से परिपूर्ण है, यह कुछ कुछ हम आपलोगों को समझा चुके। उसी भाव से आपलोग भी उस में स्थिर रहिये, यही कहना है। जिस भाव से हिंदूमत अब चलता है उस भाव से आगे नहीं चलेगा। अब हमलोगों के शरीर का बल न्यून हो गया, विदेशी शिक्षाओं से मनोवृत्ति बदल गई, जीविका और धन उपार्जन के हेतु अब हमलोगों को पाँच पाँच छ छ पहर पसीना चुआना पड़ेगा, रेल पर इधर से उधर कलकत्ते से लाहौर और बंबई से शिमला दौड़ना पड़ैगा, सिविल सर्विस का, बैरिस्टरी का, इंजिनियरी का इम्‌तिहान देने को विलायत जाना होगा, बिना यह सब किए काम नहीं चलेगा, क्योंकि देखिए, कृस्तान, मुसल्मान, पारसी यही हाकिम हुए जाते हैं, हमलोगों की दशा दिन दिन हीन हुई जाती है। जब पेट भर खाने ही को न मिलेगा तो धर्म कहाँ बाकी रहेगा, इस से जीवमात्र के सहज धर्म उदरपूरण पर अब ध्यान दीजिए। परस्पर का बैर छोड़िए। शैव, शाक्त, सिक्ख जो हो, सब से मिलो। उपासना एक हृदय की रत्न वस्तु है उस को आर्यक्षेत्र में फैलाने की कोई आवश्यकता नहीं। वैष्णव, शैव, ब्राह्‌म, आर्यसमाजी सब अलग अलग पतली पतली डोरी हो रहे हैं, इसी से ऐश्वर्य रूपी मस्तहाथी उन से नहीं बँधता। इन सब डोरी को एक में बाँध कर मोटा रस्सा बनाओ, तब यह हाथी दिगदिगंत भागने से रुकैगा। अर्थात् अब वह काल नहीं है कि हम लोग भिन्न भिन्न अपनी अपनी खिचड़ी अलग पकाया करैं। अब महाघोर काल उपस्थित है। चारो ओर आग लगी हुई है। दरिद्रता के मारे देश जला जाता है। अँगरेजों से जो नौकरी बच जाती है उन पर मुसल्मान आदि विधर्मी भरती होते जाते हैं। आमदनी वाणिज्य की थी ही नहीं, केवल नौकरी की थी सो भी धीरे धीरे खसकी। तो अब कैसे काम चलैगा। कदाचित् ब्राहमण और गोसाई लोग कहैं कि हमको तो मुफ्त का मिलता है, हम को क्या? इस पर हम कहते हैं कि विशेष उन्हीं को रोना है। जो करालकाल चला आता है उस को आँख खोल कर देखो। कुछ दिन पीछे आप लोगों के माननेवाले बहुत ही थोड़े रहेंगे, अब सब लोग एकत्र हो। हिंदूनामधारी वेद से ले कर तंत्र, वरंच भाषाग्रंथ माननेवाले तक सब एक होकर अब अपना परमधर्म यह रक्खो कि आर्यजाति में एका हो। इसी में धर्म की रक्षा है। भीतर तुम्हारे चाहे जो भाव और जैसी उपासना हो ऊपर से सब आर्यमात्र एक रहो। धर्म संबंधी उपाधियों को छोड़ कर प्रकृत धर्म की उन्नति करो।

 

भारतेन्दु समग्र ९७६