पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०३८

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विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् । स्टारार्थी लभते स्टारम् मोक्षार्थी लभते गति ।।२।। एक काल द्विकालं च त्रिकालं नित्यमुत्पठेत् । भव पाश विनिर्मुक्त : अंग्रेज लोक संगच्छति ।।३।। ईश्वर बड़ा विलक्षण है भला इस संसार बनाने का क्या काम था ? व्यर्थ इतने उल्लू एक संग पिंजड़े में बन्द कर दिए किसी को दुखी बनाया किसी को सुखी, किसी को राजा बनाया किसी को फकीर, इसी से मैं कहता हूँ कि ईश्वर बड़ा विलक्षण है। सब उसमें लय रहता, किसी को कुछ दु:ख सुख का अनुभव न होता, वह केवल परम आनंदमय अपने में रहता इसी से- कोई इसको हाँ कहता है कोई नहीं, कोई मिला कोई अलग, कोई एक कोई अनेक तो उसको अपने माहात्म्य की दुर्दशा क्यों करानी थी इसी से - सव्व सामर्थ्य मान उसको सुनकर भी लोग सर्वदा उसको नहीं मानते पर हाँ जब कुछ दु:ख पड़ता है तब स्मरण करते हैं । जब लोगों का कुछ बनता है तो उसको धन्यवाद तो थोड़े लोग देते हैं पर जो कुछ काम बिगड़ता है तो गाली सभी देते हैं, पानी न बरसै तो, घर का कोई मर जाय तो, रोग फैले तो, हार जाँय तो सब प्रकार से वह गाली सुनता है इसी से - अनेक प्रकार के जीव, विचित्र स्वभाव, अलग अलग धर्म और रुचि, विचित्र-विचित्र रंग काम क्रोध, मद, ईर्षा, अभिमान दम्भ, पैशुन्य आमृत्य इत्यादि अनेक प्रकार के स्वभाव बनाकर लंबा चौड़ा गोरख धंधा का जाल फैला कर इस घनचक्कर में सब को घुमा दिया है इसी से - एक बिचारा सुख से अपना काल क्षेप करता है कुछ उसके काम में विघ्न डालकर व्यर्थ बिना बात बैठे बिठाये उसको रुला दिया, कोई दु:ख में है उसको एक संग सुख दे दिया इसी से - एक को घटाया एक को बढ़ाया, एक को बनाया एक को बिगाड़ा, राई को पर्वत किया पर्वत को राई, राजा को रंक किया रंक को राजा, भरी ढलकाया खाली भरा इसी से उदार और पंडित दरिद्र मूर्ख धनवान, और सुंदर रसिक को कुरूपा कूढ स्त्री, कुरसिक को सुंदर वा रसिक स्त्री, सुस्वामी को कुसेवक कुसेवक को कुस्वामी इत्यादि संसार में कई बातें बे जोड़ हैं इसी से प्रत्यक्षलोग देखते हैं कि हमारे बाप दादा इत्यादि मर गए और नित्य लोग मरते जाते हैं तब भी लोग जीते हैं जानते हैं कि संसार का पट्टा मैंने लिखवा लिया है पहिले तो मैं मरूहींगा नहीं और मरा भी तो सब मेरे साथ जायगा इसी से सच है मनुष्य यह कैसे सोचै, जो हम बैठे हैं, खाते पीते हैं, चैन करते हैं कभी सोचते नहीं, कि हमारी दशांतर भी होगी वही हम कैसे मरेंगे कदापि नहीं आता इसी से- मजा है तमाशा है खेल है धूम है, दिल्लगी है मसखरापन है, लुचापन है, हंसी है, मूर्खता है, खिलौने हैं, बालक हैं, पढे हैं, नासमझ हैं, जड़ हैं, जीव है मोहित हैं, उल्लू के पढे हैं, सब परंतु उसके समझ में और उसके लोगों के समझ में भेद हैं इसी से उसके नाते परस्पर सब केवल सगे भाई बहन हैं पर लोग जाति कुजाति वर्ण आश्रम नीच ऊँच राजा प्रजा स्त्री पुत्र इत्यादि अनेक भेद समझते हैं इसी से- यह उसी की विलक्षणपना है कि हिंदुओं को सब के पहिले उसने लक्ष्मी और सरस्वती दी और चिर काल तक उनको इस देश में स्थित किया परंतु अब वह हिंदू दास धर्म शिक्षित हो रहे हैं इसी से - यह उसी का विलक्षणपन है जिस भूमि में उदयन, शूद्रक, विक्रम, भोज ऐसे राजा कालीदास, वाण से पंडित दे उसी भूमि में हमारे तुम्हारे से लोग हैं, यह उसी का विलक्षणपन है कि मुसलमानों ने हिंदुस्तान को बहुत दिन तक भोगा अब अंग्रेज भोगते हैं, मुसलमानों को अपने पक्षपात हैं अंग्रेजों को अपनी का, हिंदू दोनों की भारतेन्दु समग्र ९९४