पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०५८

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संगीत सार हरिश्चन्द्र चन्द्रिका खण्ड-२ संख्या ८-११ सितम्बर सन् १८७५ में छपा । बाद में पुस्तकाकार प्रकाशित। भारतवर्ष की सब विद्याओं के साथ यथाक्रम संगीत का भी लोप हो गया । यह गानशास्त्र हमारे यहाँ इतना आदरणीय है कि सामवेद के मंत्र मात्र गाए जाते हैं । हमारे यहाँ वरंच यह कहावत प्रसिद्ध है 'प्रथम नाद तब वेद' । अब भारतवर्ष का संपूर्ण संगीत केवल कजली ठुमरी पर आ रहा है । तथापि प्राचीन काल में यह शास्त्र कितना गंभीर या हम इस लेख में दिखलावेंगे। गाना, बजाना, बताना और नाचना इस के समुच्चय को संगीत कहते हैं । प्राचीन काल में भरत, हनुमत, कलनाथ और सोमेश्वर यह चार मत संगीत के थे । कोई कोई शारदा, शिव, हनुमत और भरत यह चार मत कहते हैं । सात अध्यायों में यह शास्त्र बँटा है । जैसे स्वर, राग, ताल, नृत्य, भाव, कोक और हस्त । सम्यक् प्रकार से जो गाया जाय उसे संगीत कहते हैं, धातु और मातु संयुक्त सब गीत होते हैं । नादात्मक धातु और अक्षरात्मक मातु कहलाते हैं । वह गीत यंत्र और गात्र विभाग से दो तरह के है । बीना बेनु इत्यादि से जो गाया जाय वह यंत्र और कंठ से जो गाया जाय वह गान गीत है । गीत निबद्ध और अनिबद्ध दो प्रकार के होते हैं, अक्षरों के नियम और गमक के नियम बिना अनिबद्ध और ताल मान गमक अक्षर रसादि के नियम सहित निबद्ध । शुद, शालंग और संकीर्ण के भेद से यह गीत तीन प्रकार के हैं परंतु यह भेद प्रबंध हीके होते हैं । शुद्ध के एलादिक बीस भेद है, यथा एला, सोध्यभवा, पाट करण, पंच, तालेश्वर, कैरात, स्मर, चक्रपाल, विजया, गद्य, त्रिभंगी, टेंको, वर्णपुट, सर्गपुट, द्विपदिका, मुक्तावली, माहका, लंब, दंडक ओर वर्तनी । इन गीतों के छ अंग हैं यथा पद, तान, बिरूद, ताल, पाट और स्वर । ध्रुवक, मंडक प्रतिमंडक, निःसारक, वासक, प्रतिलाभ, एकतालिका, यति और झूमरी ये शालग के भेद हैं । चैत्र, मगलक, नगनिका, चर्चा, अतिनाट, उन्नवी, दोहा, बहुला, गुरुबला, गीता, गोवि, हेम्ना, कोपी, कारिका, त्रिपदिका और अधा ये संकीर्ण के भेद हैं । गीत प्रबंध में अक्षरों के भात्राशुद्धि पुनरूक्ति इत्यादि दोष नहीं होते । गाना बजाना सब दो प्रकार का होता है, एक ध्वन्यात्मक दूसरा रागात्मक । रागात्मक चार प्रकार के होते हैं, यथा स्वर प्रधान अर्थात स्वर के आग्रह से जिसमें ताल की मुख्यता न रहै, दूसरा उभय प्रधान जिसमें ताल बराबर रहे और स्वर भी सुंदर हों, तीसरा शुद्धता प्रधान जिस में राग के शुद्ध रूप रहने का आग्रह हो चाहै माधुर्य हो चाहै न हो, चौथा माधुर्य प्रधान जिस में राग का शुद्ध रूप कुछ बिगड़े पर माधुर्य रहै । स्वर -षड्ज, ऋषभ, गांधार, मव्यम, पंचम, धैवत और निषाद ये सात हैं । मयूर, गऊ, बकरी, क्रौंच, कोकिल, अश्व और हाथी इनके शब्द में क्रम से पूर्वोक्त स्वर निकलते हैं । नासा, कंठ, उर, तालु, जिहवा और दंत छ स्थान से जो उत्पन्न हो वह षड्ज, (ऋषीशगतौ) स्वर को गति नाभि से सिर तक पहुँचै इससे ऋषभ, गंधवाही वायु की नलिकाओं में वह स्वर पूर्ण हो इस से गांधार, फिर वह स्वर मध्य अर्थात् नाभि तक प्राप्त हो इस से मध्यम, (धयतिस्वरान् इति धैवत) मध्यम के आगे भी जो स्वरों को खींचै वह धैवत, पूर्वोक्त पाँचों सुरों को पूर्ण करै वा पंचम स्थान मूर्दा तक पहुंचे वह पंचम और (निषीदन्तिस्वरा अस्मिन् इति निषादः) स्वरों का जिस में विराम हो अर्थात जिस से ऊंचा और कोई स्वर न हो वह निषाद । इन्हीं सातों सुरों भारतेन्दु समग्र १०१४