पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

10* वाद्य को नियमित काल से उठाना, नियमित काल पर समाप्त करना । उसी नियमित काल को अनेक समान भागों पर बाँट देने की जो क्रिया है वह ताल है । महादेव जी के नृत्य ताडव और पार्वती जी के नृत्य लास्य का । प्रथमाक्षर लेकर ताल शब्द बना है, वा तल नाम हाथ की हथेली वा पद-तल इस का भाव ताल है; क्योकि प्राय: ताल विन्यास हाथ वा पैर ही से होता है । तालों के बनाने को चार मात्रा की कल्पना है, एक नियमित काल ही मात्रा होती है । अर्द्ध मात्रा की द्रुत, एक मात्रा की लघु, दो मात्रा की गुरु और और तीन मात्रा की लुप्त संज्ञा है । चचत्पुट, चासपुट इत्यादि साठ ताल के मुख्य और एकसौ एक गौण भेद संगीतदामोदर वाले शुभकर ने किये हैं । इन चार मात्राओं पर अंगुल्यादि से संकेत करके ये ताल बनते हैं और इन्हीं मात्राओं को जहाँ बीच बीच में छोड़ देते है और काल के समाप्त का चिन्ह बीच में नहीं करते फिर दूसरे तीसरे इत्यादि पर चिन्ह करते हैं तो उस बीच में छूटे हुए काल में जहाँ नियमित मात्रा समाप्त होती है पर प्रगट नहीं की जाती उसे ख वा खाली कहते हैं । एक नियम काल कल्पित मात्रा के ताल समाप्त होने पर फिर से वही ताल आरंभ करने को इन दोनों की मित्रतासूचक जो बीच का एक नियमित समान काल है वह भी ख अर्थात् खाली कहलाता है । चंचत्पुट ताल में दो गुरु एक लघु और एक प्लुत है, एक एक गुरु लघु और प्लूत चारुपुट में है, ऐसे ही सब तालों का प्रस्तार है । जहाँ मात्रा के काल अनुसार तान की समाप्ति होती है उसको सम कहते हैं । इन चौसठ तालों के अतिरिक्त आठ अष्टताल, ग्यारह रुद्रताल, चार ब्रहमताल और चौदह इंद्रताल है । रुद्रताल का प्रथम भेद वीरविक्रम यथा एक मात्रा एक शून्य ऐसी तीन आवृत्ति फिर दोताल यह वीरविक्रम हुआ। ऐसे ही सब ताल यथा मात्रानुसार चानो । आज कल प्रसिद्धताल चौताला, तिताला, एकताला, आड़ा, रूपक, झपताल इत्यादि है। (झाँझ) मुख्य हैं । तत यथा अलाबुनी, ब्रह्मबीना , किन्नरी, लघुकिन्नरी, विपंची, वल्लकी, ज्येष्ठा, चित्रा, ज्योतिष्मती, जया, हस्तिका, कुब्जिका, कूर्मी, शारंगी, परिवादिनी, त्रिशरी, शतचंद्री, नकुलोष्ठी, टसरी, उडम्बरी, पिनाकी, निबंध, तानपुर, स्वरोद, स्वरमंडल, स्वरसमुद्र, शुष्कल, रुद, गदावरण, हस्तक, विलास्य, मधुस्पन्दी और घोण इत्यादि । वीणा के तीन भेद हैं यथा वल्लकी. पंचतंत्री (विपची) और परिवादिनी । धनिमाला, रंगमल्ली, घोषवती, कंठकूजिका और विद्युत ये वीणा ही के नामांतर है । वीणा के सात भेद और हैं यथा नारद की महती, दीव की लम्बी, सरस्वती की कच्छपी, तुबरु की कलावती, विश्वावसु की बृहती और चांडालों की कंडील बीना अथवा चांडाली । (इसका प्रयोजन शव क्रिया के समय पड़ता था) । वीणा के अंग को कोलंबिक, बंधन को उपनाह, दंड को प्रवाल, बगल के काठ को ककुभ और प्रसेवक और वंशशाला, काकलिका, कनिका, मेरु इत्यादि और वस्तुओं को कहते हैं । सुशिर यथा वशी, मुरली, वेणु (तीनों वंशी के भेद), परी, मधुरी, तित्तरी, शंख, काहला, तोमड़ी, निषंग, बुक्का, शंगिका, मुखचंग, स्वरनाभि, आवर्ती, शंग, कापालिका, चर्मवंश, स्वरनादी (सैनाई), वक्रगला, चर्मदेहा और गलस्वरा इत्यादि । वेणु रक्तचंदन, खैर, चंदन, स्वर्ण, चाँदी, तामा, लोहा और कठिन पाषाण का होता है परंतु बाँस का सब से उत्तम है । मतंग मुनि के मत से बाँसही का वेणु होता है । दस अंगुल का वेणु महानंद, इसके ब्रह्मा देवता, ग्यारह अंगुल का नंद इसके रुद्र देवता, बारह अंगुल का विजय इसके सूर्य देवता और चौदह अंगुल का जय इसके विष्णु देवता । वंशी की फूंक में निविड़ता, प्रौढ़ता, सुस्वरता, शीघ्रता और मधुरता ये पाँच गुण हैं और सीत्कार- बाहुल्य, स्तब्ध, विस्वर, खंडित. लघु और अमधुर ये छ दोष हैं । तेरह और सत्रह अंगुल की वंशी नहीं बनाना इसमें आचार्यों ने दोष माना है । कानी उँगली जा सके इतना बीच का छेद (पोलापन) रहै, यह छेद आरपार रहे पर सिर की ओर किसी वस्तु से अवरुद्ध वा बंधनातर संयुक्त रहै, सिरे से एक अंगुल वा दो अंगुल छोड़ कर स्वर का छेद करना, फिर पाँच अंगुल छोड़कर सात सुर के सात छेद आधे आधे अंगुल पर बैर के बीज बराबर करै, दोनों ओर तार वा चर्मतार से वंशी को बाँधे और बीच में सिक्कक (छीके) स्वर की मधुर और श्रुति संगीत के पूर्वोक्त तीन भेद अर्थात् स्वर, राग और ताल गले के अतिरिक्त वाद्यो से भी संपादित होते हैं, अतएव अब वाद्यों का वर्णन करते हैं । बाजों के चार भेद है, यथा तत, सुशिर, आनद और धन । नए मत से अर्थात कालानुसार दो भेद और कर सकते हैं, यथा समष्टि और स्वयं वह । तार से जो बजे वह तत यथा वीणादिक । फूंकने से बजे वह सुशिर यथा वंशी इत्यादि । चमड़े से मढ़े हो वह आनद यथा मृदंगादिक । कांसादिक से जो ताल सूचक हों वह 'धन' यथा माँझ आदि । ये चारों वा तीन वा दो जिस में मिले हों वह संगीत सार २०१७