पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०६२

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समष्टि यथा हारमोनियम आदि और जो ताली इत्यादि से बजै वह स्वयंवह यथा अरगन आदि । ये सब वाद्य तीन भेद में विभक्त हैं यथा स्वर वाही, ताल वाही और अभय वाही । तम्बूरादिक स्वर वाही, मॉम इत्यादि ताल वाही, वीणादिक उभय वाही । इन चारों में तत में वीणा शुसिर में वंशी, आनद में मृदंग और घन में ताल उत्पन्न करने को लगावै । अयुक्ति वदयुक्त और युक्ति (अर्थात् छिद्रों को बंद करना खौलना और उसस श्रुति लय तान इत्यादि किाचित् बंद करके निकालना) ये तीन अंगुलिक्रिया हैं और अकम्पत्व और सुस्वरत्व ये दो अंगुली के गुण हैं । गाने वालों को सहायता देना, स्थान देना, उन के दोष छिपाना और जिन स्वरों पर गला न पहुँचै वे स्वर निकालने ये चार इस में लाभ हैं । भगवान को तीन वंशी हैं यथा घर में बजाने की १२ अंगुल की मुरली संज्ञक, श्री गोपीजन को बुलाने की १८ अंगुल की बंशी संज्ञक और गऊ बुलाने की एक हाथ की वेणु संज्ञक । इससे ज्ञात होता है, वेणु का प्रमाण एक हाथ तक है। आनद में मर्दल, अद मर्दल, मर्दल खंड, ढलक, मुरज, ढक्का, पटह, बिबक, दर्पवाद्य, पवन, घन, रुञ्च, कलास, विकलास, टाकली, अर्द्धटाकली, झल्ली, दुकुल्ली, दौडिशान, डमरू, तुवुर, टमुकिड़डु, कुंडली, स्तंक, अभिघट, रज, दुंदुभी, टुटुकी, ददुर, उपांग, खंजरीट और करचंग ये सब हैं। इनमें मर्दल (मृदंग श्रेष्ठ है । मर्दल खैर के काठ का अच्छा होता है । चमड़े की डारी से मेरू संयुक्त कर के दोनों मुंह मा कर कसना । मढ़ने के पीछे छ महीने तक न बजाना । काठ का दल आध अंगुल मोटा हो और बाई पूरी दस वा बारह अंगुल चौड़ी हो तथा दहिनी उस के एक वा आधी अंगुल छोटी हो । बाई ओर तो पिसान की पूरी चिपकाना और दहिनी ओर खरली (खली) की पूरी लगा के सुखा देना । वह खरली - राख, गेरू, भात और केंदुक (गालव, शायद भाषा में केंदुआ कहते हैं) की हो वा चिपीटक (चूड़ा ?) में जीवनीसत्व (2) मिला कर लगाना । मट्टी का हो तो मृदंग कहलाता है । इसमें घाट, विधि पाट, कूटपाट और खंड पाट ये चार प्रकार के वर्ण हैं और यति, उढ़व अवच्छेद, गजर, रूपक, ध्रुव, गलप, सारिगोनी, नाद, कथित, प्रहरन और वृंदन ये बारह प्रबंध हैं । घन में करताल, कांस्यताल, कम्बिका, जयघंटा, शुक्तिका, पटवाद्य, पट्टातोघ, घर्घर, दंदा, झझा, मज्जीर, कर्तरी, अंकुर, काष्टताल, प्रस्तरताल, दंतताल, जलतरंग, तालतरंग, पात्रतरंग, त्रिकोणघंटा, डोलक इत्यादि हैं। घन के दो भेद हैं । अनुरक्त वह जिन में गीतों का अनुगमन हो और विरक्त वह जो केवल ताल दें । लड़ाई में वीरों का गर्जन और ये चार वाद्य बजते हैं, इससे लड़ाई की पंच वाद्य संज्ञा है । यह वाद्यों का साधारण वर्णन हुआ । ऐसे ही अनगिनती वाद्य हैं, जो अब नाम मात्रावशेष हैं । उनके रंग रूप की किसी को खवर नहीं । संगीत का चौथा अंग नृत्य है । ताल, मान, रस, भाव, होस, बिलास, वाद्यादि संयुक्त अंग विक्षेप का नाम नृत्य, इसके दो भेद तालाश्रित नृत्य और भावाश्रित नृत्त । नृत्य मधुर हो तो लास्य और उत्कट हो तो तांडव कहलाता है । तांडव के पेरली और बहुरूप ये दो भेद हैं । जिनमें अंग बहुत चलें और अभिनय थोड़ा हो वह पेरली, इसी की देशी भी संज्ञा है । जहाँ अभिनय बहुत हो और रूपांतर धारण इत्यादि किया हो वह बहुरूप । लास्य के छुरित और यौवत दो भेद हैं । जहाँ नायिका-नायक रसपूर्वक भाव परस्पर दिखाते, चुंबन इत्यादि करते नृत्य करै वह छुरित और जहाँ नटी वा नटी-वेषधारी सुंदर पुरुष नाचें वह यौवत । हाथ-पैर- सिर-नेत्र का चलाना, मुड़ना, फिरना, भाव, कमर लचकाना, धुंघरु बजाना, गाना, वस्त्र उठाना और घूमना इन सब नृत्य के अंगों में जिसको अभ्यास न हो और जो सुंदर न हो वह न नाचै । अलागलाग, लगडाँट, लहाछेह, घट-बढ़ और संकोचन-प्रसारन ये नृत्य के काम हैं और शिव-नृत्य, मयूरनृत्य, रास नृत्य, कुक्कुटनृत्य, मण्डूकनृत्य, बलाकानृत्य, हंसनृत्य, कर्तकनृत्य, मण्डल-नृत्य, युगल-नृत्य, एकहाज्ञ-नृत्य, आलातचक्र, कलानृत्य इत्यादि नृत्य के और अनेक भेद है। संगीत का पाँचवा अंग भाव है । निर्विकार चित्त में प्रीतम वा प्रिया के संयोग वा वियोग के सुख वा दु:ख के अनुभाव से जो प्रथम विकार हो वह भाव है । उसी का अनुकरण नृत्य में करना भावक्रिया है । हँसना, रोना, उदास होना, प्रसन्न होना, व्याकुल होना, छकना, मत्त होना, बुलाना, प्रणाम करना इत्यादि क्रिया को गीत अर्थ के अनुसार प्रत्यक्ष दिखाना भाव है । भाव के चार भेद है, यथा स्वर, नेत्र, मुखाकृत और अंग । स्वर से दुःख, सुख इत्यादि का बोध कराना स्वर भाव है । यह बहुत कठिन है क्योंकि गाने के स्वरों का व्यत्यय न होकर भाव प्रगट हे यह कठिन बात है । नेत्र ही से सब बातों का बोध हो और अंग न चलै, वह नेत्र भाव है । यह भी कठिन है पर तादृश नहीं परंतु इस में नेत्र ही से हँसी प्रगट करना था अनायास आंसू बहाना कठिन काम OK भारतेन्दु समग्र २०१८ उरपतिरप