पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०६९

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है कि हिंदू शास्त्रकारों ने खौफ और रंज की अस्ली हालत को भी एक रस माना है और जाहिर है कि ट्राजिड़ी यानी ऐसे तमाशे जिन का आखिर हिस्सा बिल्कुल रंज भरा हो देखने में एक अजीब किस्म का लुत्फ देती है बल्कि ट्राजिडी में जैसी उम्दा किताबें लिखी गई हैं वेसी कामेडी में नहीं । जिस तरह रज की आखिरी हालत खुशी से बदल जाती है उसी तरह खुशी की भी आखरी हालत रज से बदल जाती है और इसी से ज्याद : खुशी के वक्त लोग शिद्दत से रोते हुए पाये गये हैं । खुलासा कलाम यह कि इस किस्म की बहुत सी खुशियाँ दुनिया में हैं जिनको हम खालिस खुशी नहीं कह सकते । अब हम इस बात पर गौर किया चाहते हैं कि वह अस्ली खुशी हिंदुओं को क्यों नहीं हासिल होती क्योकि जब हम इसी खुशी को अपनी पूरी बलंदी की हद पर हर सूरत से कामिल देखना चाहते हैं तो हमेश: गैर कौमों में पाते हैं । इसकी जाहिर वजूहात जो मालूम होती हैं उनमें सब से पहिला सबब हिंदुओं के दीनी व दुनियवी तरीको का आपस में मिल जाना और तनचुली के जमाने के कम बेश फाजिलों का इहकाम शरी में दखल दर माकूलात करना है जिन के कलाम पर आपने अपनी नातरिब :कारी से पूरा अम्ल कर दिया है । इन फुजला ने अपनी कम हिम्मती की वजह से ऐसे कायदे जारी किये जिनसे आखिरकार हम लोगों की यह तर्स के लायक हालत पहुँची कि हम लोग उस खुशी को जो फी जमाना गैर कौमों को हासिल है कभी ख्वाबोखयाल में भी नहीं ला सकते । इन फिलासफरों के फिलासफी का इत्र निकाल कर जिन बातों को हमारे आराम के लिये जुरूरी बल्कि हमारी नजात का मूजिब ठहराया है वे अगर इस नजर से देखे जावें जिससे हम खुशी को अब अस्ली हालत पर गैर कौमों में बतलाते हैं तो साफ जाहिर होगा कि इन्हीं की तअलीम का यह फल है कि परमेश्वर ने इन बेचारे हिंदुओं को इस सच्ची खुशी से महरूम रख कर इसके हिस्से से अपनी एक दूसरी प्यारी खिलकत की गोद भरदी है जहाँ कि हर एक की उम्र का जाम खुशी से लबालब नजर आता है, इन कदीम जमाने के फिलासफरों के असूल की बहस बहुत तूल है और इसी तरह उस्को सिलसिलेवार दलीलों से रद करने के लिये भी बड़ी गुंजाइश चाहिये इस लिये यहाँ सिर्फ उन पुराने खयालों का खुलासा दिखलाया जाता है कि किस तरीके पर उन्होंने अपनी उस अनोखी खुशी की बुनियाद कायम की है और वह इस तरक्कीयाफ्त : जमाने के आकिलों के कौलों फेअल के नजदीक कितनी हेच है। इन उलमा की खुशी का पहिला तरीका सन्तोष यानी कनाअत है । उन्होंने अपनी पेचीद : इबारत के बेमानी मजमून में जिसका हर फिकरा अब हदीस गिना जाता है आखीर को यह साबित किया है कि खुशी व रंज दोनों गलत और बहम हैं यानी रज और राहत से अलहद : वह हालत जिस में अक्ल, ख्याल, हवास और हरकत (शायद सकते की बीमारी की हालत) जब सलफ हो जावें वही परमानंद है और वही खशी का असलुल्वसूत और लुब्बे लबाब है। आदमी को इस हालत तक पहुंचने के लिये उन लोगों ने चंद कायदे भी इजाद फरमाये हैं जिन में अव्वल उनके कलाम पर विला हुज्जत यकीन लाना हर्गिज हर्गिज दलील और अक्ल को दखल न देना । दूसरे उसी गारतगर सन्तोष को इख्यार करना और ख्वाहिश व हाजतों को दिल में पैदा न होने देना । तीसरे सब कुछ बरदाश्त कर लेना और रंज और राहत को एक अम्र तकदीरी समझ कर दमबखुद हना । चौथे नेक और बद में तमीज न करना और भला बुरा सबको यक सा समझना । पाँचवे (मुआज अल्लाह) खालिक और मखलूक न समझना । जाहिर है कि पहिले कायदे पर अमल करने ही से अक्ल पर जवाल आया और फायद : व नुकसान का खयाल जाता रहा । उन्हीं आँखों को अपने हाथ से फोड़कर बहकते बहकते उस अंधे कुएं में जा पड़े जिस में परमेश्वर ही हाथ पकड़ कर निकाले तो निकलना मुमकिन है । दूसरे कायदे की इख्तियार करते ही नामर्दी छा गई काहिली बढ़ने से हिम्मत बहादुरी और हौसले का नाम ही न बाकी रहा फौरन बेबस हो कर जमाने के हेरफेर के मुताबिक हमेश : के वास्ते अपने मुल्क को गैर कौम की नज्र कर आप परमानन्द की मूरत बन बैठे । गौर का मुकाम है कि जब ख्वाहिश और हाजत न होगी तब आदमी को किसी शय से तअल्लुक बाकी न रहेगा जिसके हासिल होने या कायम रहने को हम तअल्लुक बाकी न रहेगा जिस के हासिल होने या कायम रहने को हम खुशीका मूजिब कहें । आसूदगी को एक मौकअ तक कौन न पसंद करेगा क्योंकि बकद्र ख्वाहिश उस के हासिल होने पर जब तक हम ऐसी नई ख्वाहिश न पैदा करें जिस के पूरे करने का जरिय : पहिले से सोच लिया हो यह जुरूर है कि हम पहिली ख्वाहिस पर कामयाब होने का मजा हासिल करने के लिये आसूदगी इखतियार खुशी १०२५