पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०७

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och आ70 उदपि धमाके जोग नहिं तऊ दया अतिकीन ।१० मायावाद-मतंग-मद हरत गरजि हरि-नाम । क्या कयामत नाने बपा करके। क्या हुआ यार छिप गया किस तर्फ । खुद बखुद आज जो वो बुत आया । इक झलक सी मझे दिखा करके । में भी दौड़ा खुदा यदा करके। दोस्तो कौन मेरी सुरवत पर । क्यों न दाया करे मसीहा का। रो रहा है 'रसा रसा' कर के २ मुर्दे ठोकर से यह जिला करके । उतरार्द्ध भक्तमाल [कवि-वचन सुधा" २७ मार्च १८७६ में सूचना और 'हरिश्चन्द्र नद्रिका' १८७६-७७ में ग्रंथ प्रकाशित ] उत्तरार्द्ध-भक्तमाल छत्रानी सों कट्या या कई जानह संत । दोहा अहो कपाल कृपालुता तुमरी को नहि अंत ।११ चर-तापित हिय में प्रगट जुगल हंसत आसीन । राधावल्लभ वल्लभी वल्लभ वल्लभताई। स्वर्ण सिंहासन पर लिए कर जुग कंज नवीन ।१२ चार नाम बपु एक पद बंदत सीस नवाद ।१ अंगिनि यरत चारहुँ दिसा पै मधि सीतल नीर । हवै प्रतन्छ यसि गृह निकट दियो प्रेम को दान । ताहि उजारत चरन सों देत दास कहें धीर ।१३ जय जय जय हरि मधुर बपु गुरु रस-रीति-निधान ।२ बहु नट वपु स्वै आपही कसरत करत अनेक । जग के विषय छाइ सब सुद प्रेम दिखराइ । कबहूँ पौढ़े महल में तानि मौन पट एक ।१४ बसे दर हो सहज पनि, जे जादवराह ।३ कबहूँ सेत पाखान की कोच जुगल छथि धाम । धनजन हरि निनित कार, फिर डारयी भव-जाल । बैंठ बाग बहार में गल भुव दिए सलाम ।१५ सोचि जुर्गात कल मोहि जिन जे जे सो नदलाल ।४ सांभ समय आरति करत सब मिलि गोपी ग्वाल । कछु गीता मैं भति के शुक स्यै करना धारि कबहुँ अकेले ही मिलत पिय नंदलाल दयाल ।१६ .. कही भागवत में प्रगट प्रेम-रीति निरुवारि ।५ काहं गौर दुति बाल अपु रजत अभूषन अंग । पुनि बल्लभ हो सो कही कबहूँ कही जु नाहि । पंच नदी पौसाक तन धरे किए सोह ढंग 1१७ शुद्ध प्रेम-रस-रीति सब निज ग्रंथन के माहि । कबहुं जुगल आवत चले साँझ समय अरसात । वंश रूप करि के विविध थापी पनि जग सोय । के बसत जंह हरित धर चारहु ओर दिखात ।१८ अब लो जाके होस मों पामर प्रेमी होय १७ देखि दीन भुव में जुठत फुल-हरी सिर मारि व्यास कृष्ण चैतन्य हरि दास सहित हरिवंस हंसत परसपर रस भरे जिग अति न दया बिचारि ।१९ | कबहुँक प्रगट कबहूँ सपन कबहूँ अचेतन माहि । भाँत भाँति अनुभव सरस जिन दिखरायो आप । निब जय दृढ़ता हेत जो बारबार दिखाहिं ।२० अधमई को सो नित जयति समन समन पुर दाप ।९ होत बिमुख रोकत तुरत करत विविध उपदेश । अतिहि अघी अति हीन निज अपराधी लखि दीन । जै जै हरि-राधिका बितरन नेह बिसेस १२१ विविध गुप्त रस पुनि परि वपु परम प्रसंसा oth उतराहर्द भक्तमाल ६७