पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०७०

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28:40h करें । सिवाय इसके आसूदगी से यह मुराद नहीं है कि हमारी भूख जाती रहे और हमको हर रोज ताजा खाना खाने की जरूरत न बाकी रहे । जब हम खाना खा चुकते हैं बेशक आसूदगी हासिल करते हैं मगर फिर मेहनत वगैर : से भूख बढ़ा कर खाने का नया शौक पैदा करते हैं । उसी तरह जितना हमारा इल्म बढ़ता जाता है और ख़ुशी के नये नये सामान नजर आते हैं उतना ही हमारी आदमीयत पर फर्ज होता है कि अगर हम अपनी हालत का बेहतर होना न पसन्द करें तो भी अपनी जमाअत की हाजत रफअ करने के खयाल से उस सामान के मुहैया करने की तदबीर से बाज न आवें । बल्कि जिस हालत में किसी ऐसी आफत नागहानी से हम पर कोई सदभा ऐसा सख्त हायल होता है कि जिससे दिल पस्त और वे हौसल : हो जाता है और हरगिज किसी ख्वाहिश के पैदा करने या उसके बढ़ाने में खुशी नहीं दिखलाती उस वक्त भी अगर इस कंवल संतोष का गुजर न हुआ होय तो दूसरों को खुशी पहुँचाने से इंसान खुशी हासिल कर सकता है । क्योंकि हिकमत से यह साबित है कि खुशी का बदला खुशी और रंज का बदला रंज मिलता है । यह बात जाहिर है कि तरक्की और कना अत से जिद है और जब तरक्की मौकूफ हुई तो जमाना जुरूर तनजुली पहुंचाएगा। जब हम देखते हैं कि हमारे हर चहार तरफ हर कौम के लोग बाजी लगा लगा कर और जान लड़ा कर दौड़ रहे हैं और अपनी-२ मुस्तअदी और कुबत के जोर से तरक्की के बुकचे लूट कर मालामाल हुए जाते हैं तब किस तरह दिल कुबूल कर सकता है कि हम कनाअत के टुकड़े तोड़ कर पेट भरें और मुहताजी के जहन्नुम को खुशी से कुबूल करें । अलवत्त : लाचारी की हालत में सन्न उस वक्त तक काम दे सकता है कि जब तक हम अपनी हालत बदलने की दूसरी सूरत न पैदा कर सकें । तीसरे कायदे की निसबत यह कहना है कि सख्ती के बरदास्त करने की आदत उसी कनाअत से दिल बुझे जाने और पित्ता मर जाने के बाद खुद बख़ुद पैदा होती है, उस वक्त गैरत जो इंसान को हैवान से अलहद : करनेवाली चीज है गुम हो जाती है और जब यह इंसान का उमद : जेवर खो गया तो खुशी का सिर्फ नाम याद रह सकता है ! बरदाश्त सिर्फ दुश्मन की ताकत घटा कर हिकमतें अमली से उस पर गालिब आने का मौकह पाने के लिये है न कि हमेश : के लिए गुलामी इख्तियार करने के । चौथे कायदे की तअलीम में खुशी और रंज का फर्क ही न बाकी रक्खा कि एक के हासिल करने और दूसरे के रफअ करने की जुरूरत होती । उस अनूठे कारीगर ने अपने कारीगरी की बारीकी जानने के लिये जो कुछ हमें तमीज बख्शा है उससे हम दम पर दम नए तिलस्मात का भेद जानते जाते हैं जिस से हमारे दिल का अँधेरा खुद बख़ुद दूर होता है और हमारी आँखों के सामने वह बातें दिखलाई पड़ती हैं जिस के वगैर हम किसी चीज की पूरी पूरी कद्र नहीं कर सकते, जाहिर है कि जब हम कद्र नहीं कर सकते तो हम न उसके हासिल होने की ख्वाहिश होगी न हासिल होने पर खुशी होगी । हर शख्स इसकी वजह खुद दरयाफ्त कर सकता है कि तमीज के साथ खुशी की तअदाद बढ़ती है बल्कि मुख्तलिफ हुकमा इस बात पर बहस करते हैं और खुशी जानकारी है या अनजानपन । एक का कौल है कि इल्म ही खुशी का मूजिब है क्योंकि अपनी ख्वाहिश और उस के पूरे होने की कद्र आदमी इल्म से करता है बरखिलाफ इसके दूसरा आलिम कहता है कि जानकारी ही से ख्वाहिश बढ़ती है और आदमी अपनी हशमत मौजूद : को कम समझता है । खैर इस बहस का जवाब और मौकअ पर मौजूद है । इस वक्त इस कहने से मतलब यही है कि हर हालत में बे तमीज को खुशी की कद्र नहीं मालूम हो सकती क्योंकि वह अपनी गलती नहीं पहचान सकता और इसी से वाकिफकारी के फायदों को नहीं उठाता जिस पर कि खुशी का घटना बढ़ना मौजूद है। पाँचवें कायदे की निसबत हम इतना ही कह सकते हैं कि इस शैतानी खयाल से सख्त मुसीबत, इंतिहा की आजिजी और मायूसी की हालत में जब कि किसी सूरत में तस्कीन नहीं होती और खुशी का नाम भी जबान से नहीं निकल सकता उस वक्त बंदों के वास्ते एक आखिरी दरवाजा फर्याद का जो खुला था वह भी बन्द कर दिया गया । तमाम उम्र देखा कि ये कि कभी दो मुख्तलिफ जुज एक नहीं हुए मगर इन दिल्लगीबाजों ने यकीन करा ही दिया कि कोहार और खिलौना एक ही चीज है पर और के तजरिब : और आदमी की बनावट की खासियत को बखूबी मालूम करने से मालूम होता है कि हमारी जिन्दगी का कडुआ प्याला उसकी याद के आबहयात के दो चार कतरे शामिल किए बगैर किसी खालिश खुशी से शीरी किया नहीं जा सकता मगर जब याद और यादकुनिंदा ही बाकी न रहा तो फकत इस जिन्दगी के नतीजे ही रह गए । खैर इस तूल कलामी से कुछ हासिल नहीं अब सिर्फ इतना दिखलाना और बाकी है कि उन कौमों में जिनको परमेश्वर ने अस्ली खुशी भारतेन्दु समग्न १०२६