पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०७१

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हासिल करने का भाऊर और मनसब प्रखशा है हिंदुओं के बरखिलाफ जाहिरा क्या फर्क है । कौमियत का पास, अपने तरक्की की कोशिश, मेलकालुफी आजादी, इल्म और हुनर सीखने का खान्दानी रिवाज, बे हुनरी और काहिली और एहसान उठाने की शर्म, मुस्त अदी, दिलेरी, सिपहगिरी का शौक, फनून की चाह, जे गरज दोस्ती और उसकी शर्तों की पाबन्दी, तहजीव की केद, सफाई, कद्रदानी, खुदा का खौफ और मजहब का रस्म और दूरदेशी के सिवाय सुशी को बुनयाद, औरतों की लियाकत और इरादे, ऐसी ही बहुत सी बाते हैं जो उन कौमों को खुदा ने बख्शी और हम उन से महरूम हैं । खुशी तो इन सितों की गुलाम है मुमकिन है कि जडाँ यह सिफतें मौजूद हो खुशी खुद बखुद वस्त : न हाजिर हो । मगर बरखिलाफ इस के हमारे पास जो सामान हैं रंज के हैं यानी वे इखतियारी, दीनी और दुनियवी कायदो का एक होना, ना तजरिब : कार बुजुर्गों की बात पर अमल करना, मजहब के उन फुजूज उकायद की पाबन्दी जिन से दर हकीकत मजहब से कोई इलाका नहीं है, अपने इसब व नसव का भूल जाना. हमदर्दी का दिल से गुम होने तरीक : तालीम के वसूलों का पस्त होना, अपनी पाबन्दियों से मुल्क की आबोहवा को बिगाड़ कर तंदरुस्ता में फर्क डालना, तकलीफ ही को सवाब और आराम का पूचित्र समझना, दौलत का हमेश : बाहर जाना और कार के उम्द : वसीलों का जाय : होता, मुख्तलिफ मजाहिब की पाबंदी से दिलों का न होना । एक और सबसे बड़ी बात उस परमेश्वर का हम लोगों से नाराज रहना । ऐसी ही बहुत सी बातें हैं जिन से हम हिंदुओं को अब ख्वाब में भी खुशी नसीब नहीं है कि जिन में से एक एक तहकीकात और बयान के वास्ते अलग अलग किताबें लिखी जाये तो भी काफी न हो। खुशी १०२७