पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०७७

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हरिद्वार कविवचन सुधा १४ अक्टूबर सन् १८७१ में ही यह दूसरा पत्र संपादक के नाम सं. छपा। श्रीमान कवित्रचन सुधा संपादक महामहिम मित्रवरेषु ! मुझे हरिद्वार का शेष समाचार लिखने में बड़ा आनन्द होता है कि मैं उस पुण्य भूमि का वर्णन करता हूँ जहाँ प्रवेश करने ही से मन शुद्ध हो जाता है । यह भूमि तीन ओर सुंदर हरे हरे पर्वतों से घिरी है जिन पर्वतों पर अनेक प्रकार की वल्ली हरी भरी सज्जनों के शुभ मनोरथों की भांति फैल कर लहलहा रही है और बड़े बड़े वृक्ष भी ऐसे खड़े हैं मानों एक पैर से खड़े तपस्या करते हैं और साधुओं की भांति घाम ओस और वर्षा अपने ऊपर सहते हैं । अहाँ ! इनके जन्म भी धन्य हैं जिन से अर्थी विमुख जाते ही नहीं । फल, फूल, गंध, छाया, पत्ते. छाल, बीज, लकड़ी और जड़ यहाँ तक कि बले पर भी कोयले और राख से लोगों का मनोर्थ पूर्ण करते हैं । सज्जन ऐसे कि पत्थर मारने से फल देते हैं । इन वृक्षों पर अनेक रोग के पक्षी चहचहाते हैं और नगर के दुष्ट वधिकों से निडर होकर कल्लोल करते हैं । वर्षा के कारण सब ओर हरियाली ही दृष्टि पड़ती थी मानो हरे गलीचा की जात्रियों के विश्राम के हेतु बिछायत बिछी थी । एक ओर त्रिभुवन पावनी श्री गंगाजी की पवित्र धारा बहती है जो राजा भगीरथ के उज्ज्वल कीर्ति की लता सी दिखाई देती है। जल यहाँ का अत्यंत शीतल है और मिष्ट भी वैसा ही है मानो चीनी के पने बरफ में जमाया है, रंग जल का स्वच्छ और श्वेत है और अनेक प्रकार के जल जंतु करलोल करते हुए । यहाँ श्री गंगा जी अपना नाम नदी सत्य करती हैं अर्थात् जल के वेग का शब्द बहुत होता है और शीतल वायु नदी के उन पवित्र छोटे छोटे कनोंको लेकर स्पर्श ही से पावन करता हुआ संचार करता है । यहाँ पर श्री गंगा जी दो धारा हो गई हैं एक का नाम नील धारा दसरी श्री गंगा जी ही के नाम से, इन दोनों धारों के बीच में एक सुंदर नीचा पर्वत है और नील धारा के तट पर एक छोटा सा सुंदर चुदीला पर्वत है और उसके शिषर पर चण्डिका देवी की मूर्ति है । यहाँ हरि की पैरी नामक एक पक्का घाट है और यहीं स्नान भी होता है । विशेष आश्चर्य का विषय यह है कि यहाँ केवल गंगाजी ही देवता हैं दूसरा देवता नही' यो तो वैरागियों ने मठ मदिर कई बना लिये हैं। श्री गंगा जी का पाट भी बहुत छोटा है पर वेग बड़ा है, तट पर राजाओं की धर्मशाला यात्रियों के उतरने के हेतु बनी हैं और दुकानें भी बनी हैं पर रात को बंद रहती हैं । यह ऐसा निर्मला तीर्थ है कि काम क्रोध की खानि जो मनुष्य हैं सो वहाँ रहते ही नहीं । पंडे दूकानदार इत्यादि कनखल वा ज्वालापुर से आते हैं । पड़े भी यहाँ बड़े विलक्षण संतोषी हैं । ब्राह्मण होकर लोभ नहीं यह आत इन्हीं में देखने में आई । एक पैसे को लास करके मान लेते हैं । इस क्षेत्र में पाँच तीर्थ मुख्य हैं हरिद्वार, कुशावर्त, नीलधारा, विल्वपर्वत और कनखल । हरिद्वार तो हरि की पैड़ी पर नहाते हैं, कुशावर्त भी उसी के पास है. नीलधारा वही दूसरी धारा. विल्व पर्वत भी पास ही एक सुहाना पवंत है जिसपर विल्वेश्वर महादेव की मूर्ति है और कनखल तीर्थ इधर ही है, यह कनखल तीर्थ बड़ा उत्तम है । किसी काल में दक्ष ने यहीं यज्ञ किया था और यहीं सती ने शिव जी का अपमान न सहकर अपना शरीर भस्म कर दिया. यहाँ कुछ छोटे छोटे घर भी बने हैं । और भारामल जैकृष्णदास खत्री यहाँ के प्रसिद्ध धनिक है । हरिद्वार में यह बखेड़ा कुछ नहीं है और शुद्ध निर्मल साधुओं के सेवन योग्य तीर्थ है । मेरा तो चित्त बहाँ जाते ही ऐसा प्रसन्न और निर्मल हुआ कि वर्णन के बाहर है । मैं दीवान कृपा राम के घर के ऊपर के बंगले पर टिका था । यह स्थान भी उस क्षेत्र में टिकने योग्य ही है चारो ओर से शीतल पवन आती थी । यहाँ रात्रि को ग्रहण हुआ और हम लोगों ने ग्रहण में बड़े आनंद पूर्वक स्नान किया और दिन में श्री भागवत का पारायण भी किया । वैसे ही मेरे संग कल्लू जी मिन्न भी हरिद्वार १०३३