पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०७८

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आएका मित्र यात्री था। मैंने पूछा क्यों साहब बिना बिकरी की वस्तुओं पर भी महसूल लगता है । बोले हाँ, कागज देख लीजिए छपा हुआ। मैने कागज देखा उसमें भी वही छपा था। मुझे पढ़ के यहाँ की गवनमेंट के इस अन्याय पर बड़ा परमानंदी थे । निदान इस उत्तर क्षेत्र में जितना समय बीता बड़े अनंद स बाता । एक दिन मैंने भी गंगा जी के पूरी तट पर रसोई करके पत्थर ही पर जल के अत्यंत निकट परोस कर भोजन किया । जान के छलके पास ही ठंटे ठंढे आते थे । उस समय के पत्थर पर भोजन का सुख सोने की चाहत के भोजन से कहीं बढ़ के था । दिन में बारबार ज्ञान वैराग्य और भक्ति का उदय होता था । झगड़े खड़ाई का कहीं नाम भी नहीं सुनाता था । यहाँ और भी कई वस्तु अच्छी बनती है, जनेऊ यहाँ का अच्छा महीन और उज्ज्वल बनता है । यहाँ की कुशा सबसे विलक्षण होती है जिसमें से दालचीनी जावित्री इत्याद को अच्छी सुगंध आती है । मानो यस प्रत्यक्ष प्रगट होता है कि यह ऐसी पुण्यभूमि है कि यहाँ की घास भी ऐसी सुगंधमय है । निदान यहाँ जो कुछ है अपूर्व है और यह भूमि साक्षात विरागमय साधुओं और विरश्तों के सेवन योग्य है । और संपादक महाशय में वित्त से तो अब तक यहीं निवास करता हूं और अपने वर्णन द्वारा आपके पाठकों को इस पुण्यभूमि का वृत्तांत विदित करके मोनावलंबन करता हूँ। निश्चय है कि आप इस पत्र को स्थानदान दीजिएगा । लखनऊ कविवचन सुधा खण्ड-२, अंक २२, श्रावण कृष्ण ३० सम्बत् १९२२ में सम्पादक को लिखा गया पत्र जिसमें भेजने वाले का नाम एक यात्री लिखा है। भारतेन्दु का एक उपनाम यह भी था। सं. श्रीमान क. प. सुपा संपादक महोदयेषु ! मेरे लखनऊ गमन का नात निश्चय आपके पाठकगण को मनोरंजक होगा । झानपुर से लखनऊ आने के हेतु एक कंपनी अलग है । इसका नाम ब. रु. रे. कंपनी है । इसका काम भी नया है और इसके गाड इत्यादिक सब काम चलाने वाले हिंदुस्तानी है । स्टेशन कान्हपुर का तो दरिद सा है पर लखनऊ का अच्छा है । लखनऊ के पास पहुंचते ही मसजिदों के ऊन कंगूर दूर ही से दिखाते हैं. परत नगर में प्रवेश करते ही एक बढ़ी वियत आ पड़ती है । वह यह है कि चुंगी के राक्षसों का मुख देखना होता है । हम लोग ज्यों ही नगर में प्रवेश करने लगे जमदतों ने रोका । सब गठरियों को खोल खोल के देखा जप कॉई उत्तर के चौकी पर गए । वहाँ एक ठिगना सा काला रुखा मनुष्य बैठा था । नटखटपन उसके मुखर से बरसता पर लोगों के ) लोग भारतेन्दु समग्र २०३४