पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जयति कोऊ सो केसरी बृन्दाबन बन धाम ।२२ भक्त-माल उत्तर - अरध याही सों सुभ नाम तम-पाखंडहि हरत करि जन-मन-जलज बिकास । गुथी प्रेम की डोर मैं सन्त-रतन अभिराम 1800 जयति अलौकिक रबि कोऊ. श्रुति-पथ करन प्रकास।२३ नव माला हार-गल दई नाभा जी च जीन । अथ परम्परा दुगुन आजु कार कृष्ण को पहिरावत हौं तीन ।४३ लिखे कृष्ण-हिय मैं सदा जपि नवल कोर नाहिं । तन्नमामि निज परम गुरु कृष्ण कमल-दल-नैन । नाम धाम हरि-भक्त के आदि समय ह माहि ।४४ जाको मत श्री राधिका नाम जपत दिन रैन ।२४ | तदपि सदा निज प्रेम-पथ दीपक प्रगटन कान । श्रीगोपीजन-पद जुगल बंदत करि पुनि नेम । समय समय पठवत अवनि निज भक्तन ब्रजराज ।४५ जिन जग मैं प्रगटित कियो परम गुप्त रस प्रेम ।२५ ताही सों जब आवहीं भुव तब जाहि लोग । श्रीशिव-पद निज जानि गुरु बंदत प्रेम-प्रमान । भक्त नाम गुन आदि सब नासन भव-भय-रोग ।४६ परम गुप्त निज प्रगट किय भक्ति-पंथ अभिधान ।२६ तिनहीं भक्त-दयाल की परम दया बल पाइ । वंदौं श्री नारद-चरन भव पारद अभिराम । तिनको चरित पवित्र यह कहत अहौं कछु गाइ ।४७ परम बिसारद कृष्ण-गुन-गान सदा गतकाम ।२७ पुनि बंदत श्री व्यास-पद वेद-भाग जिन कीन । स्ववंश-वर्णन कृष्ण तत्व को ज्ञान सब सूत्र बिरचि कहि दीन ।२८ वैश्य अग्रकुल में प्रगट बालकृष्ण कुल-पाल । बंदत श्री शुकदेव जिन सोध प्रेम को पंथ । ता सुत गिरिधर-चरन-रत वर गिरधारीलाल ।४८ हमसे कलि-मल ग्रसित-हित कह्यो भागवत ग्रंथ ।२९ अमीचंद तिनके फतेचंद ता नंद । विष्णुस्वामि-पद जुगल पुनि प्रनवत बारंबार । हरखचंद जिनके भये निज कुल-सागर-वंद ।४९ जिन प्रगटायो प्रेम-पथ बहत जानि संसार ।३० श्री गिरिधर गुरु सेइ के घर सेवा पधराइ । गोपीनाथ अरभि जै देवादिक मध थामि । तारे निज कुल जीव सब हरि-पद भक्ति दृढाइ ।५० | बिल्वमंगल लौ सप्त सत गुरु-अवली प्रनमामि ३१ | तिनके सुत गोपाल-ससि प्रोटत गिरिधरदास । नमो बिल्वमंगल-चरन भक्ति-बीज उत्कर्ष । कठिन करम-गति मेटि जिन कीनी भक्ति प्रकास ।५१ सूक्ष्म रूप सों तरु रहे जो अनेक सत वर्ष ३२ | मेटि देव-देवी सकल छोड़ि कठिन कल-रीति । यह मारग इबत निरखि जिन प्रगटायो रुप । थाप्यो गृह मैं प्रेम जिन प्रगट कृष्ण-पद-प्रीति ।५२ नमो नमो गुरुवर-चरन श्री वल्लभ द्विजभूप ।३३ पारवती की कृख सो तिनसों प्रगट अमंद । जुगल सुअन तिनके तनय जिनहिं आठ निरधारि । गोकुलचंद्राग्रज भयो भक्त दास हरिचंद ।५३ भक्ति रूप दसधा प्रगट बंदत तिनहिं बिचारि ।३४ | तिन श्री बल्लभ बर कृपा बिरची माल बनाइ । एक भक्ति के दान हित थापित परम प्रसंस । रही जौन हरिकंठ मैं नित नव बैलपटाइ ।५४ भयो अहै अस होइगो जै श्री वल्लभ वंस ।३५ लहिहैं भक्त अनंद अति. हवेहैं पतित पवित्र । प्रगट न प्रेम प्रभाव नित नासन सोग कुरोग । पढि पढ़ि कै हरि-भक्त को चित्र विचित्र चरित्र ।५५ जै जै जग-आति-हरन विदित वल्लभी लोग ।३६ श्री विष्णु स्वामि संसार मैं प्रगट राजसेवा करी । जे प्रेमी-जन कोउ पथ हरि-पद नित अनुरक्त । श्री शुक सों लहि ज्ञान आंध्र भुव पावन कीनी । बंदत तिनके चरन हम करहु कृपा सब भक्त ।३७ नृप-प्रधानता जगत-जाल गुनि के तजि दीनी । अथ उपक्रम हठ करि हरि को अपुने कर नित भोग लगायो । नाभा जी महराज ने भक्तमाल रस जाल । भक्ति-प्रचारन द्विविध वंश भुव माहि चलायो । आलवाल हरि-प्रेम की बिरची होई दयाल ।३८ जग में अनेक सत बरस बसि नाम दान भुव उदरी । ता पाछे अब लौ भये जे हरि-पद-रत-संत । श्री विष्णु स्वामि संसार में प्रगट राजसेवा करी ।५६ तिनके जस बरनन करत सोइ हरि कह अति कंत ।३९ | श्री निंबादित्य स्वरूप धरि आपु तुंग विद्या भई । कबहूँ कबहुँ प्रसंग-बस फिर सों प्रेमी नाम । द्रावड़ि भुव मैं अरुण गेह द्विज वै प्रगटाए । ऐहैं या नव ग्रंथ मैं पूरब-कथित ललाम ।४० तम पखंड दलमलन सुदर्सन बपु कहवाए । भक्तमाल जो ग्रंथ है नाभा-रचित विचित्र । सकल वेद को सार कयौ दस ही छंदन महँ । ताही को एहि जानियो उत्तर भाग पवित्र ।४१ | शुक-मुख सों भागवत सुनी नृप देवरात जहं ।, भारतेन्दु समग्र ६