पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०९०

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जनकपुर की यात्रा यह यात्रा विवरण हरिश्चन्द्र चंद्रिका और"मोहन चन्द्रिका खं.७ सं. आषाढ़ शुक्ल १ सं. १९३७ (सन् १८८०) मे छपा है। -सं. आज देपहर को पहुँचे । राह में रेल में कुछ कष्ट हुआ । क्योंकि सेकण्ड क्लास में तीन चार अंग्रेज थे । बस उनमें मैं अकेला "जिमि दसनन महँ जीभ बिचारी" कष्ट हुआ ही चाहै 'नर बानरहि संग कहु कैसे' । इसके वास्ते यह इंतिजाम होना जरूर है कि हर ट्रेन में एक गाड़ी जिसमें फर्स्ट और सेकण्ड दोनों ही हिंदुस्तानियों ही के वास्ते रहे । इस विषय में मैंने रेलवे कंपनी की कनफरेंस के सेक्रेटरी को लिखा तो है पर 'तूती की आवाज' अगर सुनी जाय । जैसी ही उनको पान सुरता की पचापच से नफरत है वैसी इधर चुरुट के धूम्र से । ऐसी ही अनेक प्रकृति विरुद्ध बातें हैं जो केवल कष्टदायक है । एक बात और बहुत जरूरी है । ऐसे स्टेशनों पर जहाँ गाड़ी देर तक ठहरै फर्स्ट और सेकेण्ड क्लास के हिंदुस्तानियों की पाखाना वगैरह की कोठरी अलग बननी चाहिए क्योंकि नकमोड का इनको अभ्यास न स्वतंत्र जलादिक बिना इनको सुभीता । मगर गौर सभ्य बाजे तो बड़े सभ्य और दिल्लगीबाज मिलते हैं । अब की बरसात में सेकेंड क्लास में एक साहव सोये थे मैं भी उसी में था । पानी को कुछ बौछार भीतर आई । साहब ने जागकर पूछा Have you made water ? मैंने कहा Not I but God इस पर बहुत ही प्रसन्न हुआ । वैसे ही अब की भी एक दिल्लगीबाज थे । मेरे पास एक हिन्दोस्तानी रहंस थे ये । उनको उन्होंने पूछा यह कौन हैं ? मैंने उत्तर दिया He is a rich man. His fore-fathers were very rich bankers of my city. इस पर उसने हँसकर कहा all of those fours? इस फिकरे पर मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ । मेरे बालों पर विग विग की और दो और सोए हुए थे उन पर स्त्री पर की फबती भी अच्छी हुई । तो बाजे तो भाग्य से ऐसे मिल जाते हैं मगर बाजे बड़े ही कष्टदायक मिलते हैं और हिंदोस्तानियों से ऐसी घृणा करते हैं कि जी दु:खी हो जाता है । रेंरें करके रात को बारह बजे बाढ़ पहुँचे । चार बजे तक सरदी में वही टपे । पाँच बजे रेल फिर चली । घाट पर पहुँचे । वहाँ एक स्टीभर था । दरिद्र स्टीमर । जिसके सेकेण्ड क्लास में सिवा इस नाम के गुण कोई नहीं । बल्कि वहाँ बैठना भले आदमी के वास्ते एक शर्म की बात है । खैर वहीं बैठ कर पार लगे । वहाँ से तिरहुत की रेल वाह रे रेल । एक गाड़ी बालू में गड़ी थी उसी में तार घर और टिकट आफिस । तार दो दो कैलीदार बाँसों । सड़क आधे आधे औंधे गोलों पर बालू राम भरोसे । गाड़ी ऊँचे नीचे छकड़ों की तरह लुड़कती पुड़कती चलती थी । छोटी इतनी कि जी चाहा कि सरस्वती की गुड़िया को दे दूँ । सेकेण्ड क्लास महज वाहियात । भवा रंग भद्दे काठ भवे लोहे । जगह सोने को कौन कहे बैठने को नहीं । रेल की तारीफ करूँ कि तार की कि स्टेशनों की कि मास्टर की । झण्डी मालूम होती थी कि कोई खेत वाला स्त्री की मैली फटी साड़ी का पल्ला फाड़कर लकड़ी में लगाकर कौआ हाँकता है । खैर दरभंगे पहुँचे । कल जनकपुर जाँयगे । बाकी कल के खत में। भारतेन्दु समग्र. १०४६