पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०९२

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वात्सल्य-इस रस को लोग शृंगार के अन्तर्गत करते हैं अब हम उनसे पूछते हैं कि आप जिस समय अपने पुत्र को या कन्या को देखियेगा या उनका वर्णन पढियेगा तो आप को कौन रस उदय होगा यदि उस समय अर्थात पुत्र को कन्या को देखके शृंगार रस उदय होय तो आप धन्य हैं और जो कहै सो मानने योग्य है ।। आनंद-लोग कहते है कि इस रस के मानने से कोई लाभ नहीं है । मैने माना कि लाभ नहीं पर मैं यह पूछता हूँ कि जहां कवि की दृष्टि शुद्ध शब्दालंकार आनन्द होता है वहां तुम कौन रस मानोगे वा जहाँ कोई नीति की बात वा किसी वस्तु की शोभा वर्णन की जायेगी वहां कौन सा रस होगा निस्संदेह सब काव्य में रस होता है क्योंकि बिना रस के काव्य व्यर्थ है "सौ वै स: यल्लब्ध्वानन्दी भवतीति" तो इससे कृपा कर के आग्रह छोड़िये और काव्य विषय में जो कुछ अनुभव में आता जाता उसको मानते जाइये इसमें शब्द प्रमाण का कोई काम नहीं है। कृपा कर के इस पत्र को छाप दीजिए। रामकटोरा ज्येष्ठ शु०॥ आपका मित्र हरिश्चंद्र (हिन्दी भाषा) यह खंग विलास प्रेस से सन् १८९० में छपा है। वृजरतन दास का मानना है कि इसका पहला संस्करण भी यहीं से सन् १८८३ में निकला था। इस लेख में भारतेन्दु बाबू ने अपने युग के भाषा विवाद पर प्रकाश डाला है। -सं० भाषाओं के तीन विभाग होते हैं यथा घर में बोलने की भाषा कविता की भाषा और लिखने की भाषा । अब पश्चिमोत्तर देश में घर में बोलने की भाषा कौन है यह निश्चय नहीं होता क्योंकि दिल्ली प्रात के वा अन्य नगरों में भी खत्रियों वा पछाहीं अगरवालों वा और पछाही जातियों के अतिरिक्त घर में हिंदी बनारस में जो बनारस के पुराने रहवासी हैं उनके घर में विचित्र विचित्र बोलिया' पुराने कसेरे लोग "बाट:" शब्द का बहुत प्रयोग करते हैं जैसा "आवत हई" के स्थान पर "आवट बाटी" का करत हौवः "वा" का करल" के स्थान पर "का करत वाट्य वा बाटो वा बाटः" । इस दशा में बनारस की मुख्य बोली यह और वह बोली है जिसका उदाहरण में न०७ कलकत्ते की शोभा में मिलेगा अर्थात वह पुरबिये बनियों की बोली है. वरंच यह बोली यहां के प्रसिद्ध धनिकों के घर में बोली जाती है परन्तु इस दोनों बोलियों को छोड़कर बनारस में बदमाशों की भाषा अलग ही है जिसमें कितने ऐसे व्यर्थ शब्द हैं जिनका न सिर है न पैर है जैसा झांझा, गोजर इत्यादि. वरन वे जिस ईकारान्त (वा कभी कभी ओकारांत वा कदाचित आकारात) शब्द के पीछे क लगा देंगे उसका अर्थ गाली होगा । इसका विशेष वर्णन हम काशी की दशा के वर्णन में लिखेंगे पर यहां इतना ही समझ लेना चाहिए कि इन की भाषा भी अब काशी की भाषा में स्वतंत्र हो गई है। कोई कहते हैं कि काशी की सबसे प्राचीन भाषा वह है जो डोम लोग बोलते हैं क्योंकि वे ही यहां के प्राचीन वासी हैं और उनकी भाषा में प्रायः दीर्घ मात्रा होती है । जो हो यह तो सिद्धांत है कि जो यहां के शिष्ट लोग बोलते हैं वह परदेशी भाषा है और यहां पश्चिम से आई है । काशी के उस पास ही रामनगर में यहां की बोली से कुछ विलक्षण बोली बोली जाती है और वह मिापुर की भाषा से बहुत मिलती है । ऐसे ही पश्चिमोत्तर देश में अनेक भाषा है पर उनमें ऐसे नगर थोड़े हैं जिनमें आबाल वृद्ध वनिता सब खड़ी भाषा बोलते हों अतएव यद्यपि काशी ऐसे पूर्व प्रदेशों की मातृभाषा व घर में बोलचाल की भाषा हिन्दी हैं यह तो हम नहीं कह सकते पर हां यह कह सकते हैं कि इसी पश्चिमोत्तर देश में कई नगर ऐसे हैं जहाँ यही खड़ी AR भारतेन्दु समग्र २०४८