पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०९६

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हरिश्चन्द्र मैगजीन में १५ मई सन् १८७४ में छपा । मैगजीन की यह प्रति अधूरी है। अत: लेख अधुरा मिला है। यह लेख भारतेन्दु जी के प्रकृति वर्णन का उदाहरण है। 'अहा हा यह भी कैसा भयंकर ऋतु है ग्रीष्मो नामर्तुरभवन्नतिप्रयांच्छरणा"" इसमें प्रचंड मार्तण्ड अपनी घोर किरणों से स्थावर जंगम और जल सब का रसखीच लेता है, जैते ही जीते सब जीव निर्जीव हो जाते हैं । सावन केवल जीवन में आ अटकता है और वह जल भी इस उग्न सूर्य से इस ऋतु में इतना डरता है कि प्रायः छोटी नदी और छोटे सरोवर तो शुष्क ही हो जाते हैं, कूपों में यद्यपि जल इतना नीचे छिपा रहता है कि सूर्य के दुखदाई किरण दाण वहां न पहुंचे तो भी मारे डर के थर थर कापता है । पर देखो शत्रु के घर में कैसा भी बलिष्ठ पसु आता है तो शत्रु निर्बल होने पर भी अपना दाव लिये बिना नहीं छोड़ते, इन्हीं सूर्य की खरतर किरणों को जब अपने तरंग भुजाओं से पकड़ लेता है तो टुकड़े टुकड़े कर इधर-उधर बता देता है और जब अपनी किरणों का अपने सामने हजारों टुकड़े होना देखता है तो सूर्य भी जल में थर थर कापता है, मत्स्य, कच्छ इत्यादि जीव गरमी के मारे भीतर से उबल-उबल कर ऊपर उछले पड़ते हैं और ऊद भस सूकर इत्यादि स्थल के पशु भी जल में जा बैठते हैं, हंस, बगले, बतक, जलकुक्कुट, पनडुब्बे और चकई चकवे पक्षी हो कर भी इस ऋतु में शुद्ध जलचर जान पड़ते हैं, अन्न का आदर घट जाता है शांति केवल जल में होती है, स्त्रियों को यद्यपि सहज की वस्त्राभूषण से प्रीति है परन्तु इस ऋतु में वे भी उन्हें उतार उतार कर फेंक देती है और बन की भीलिनों की भांति फूल पत्तों से ही अपने को सज बज कर प्रीतम की बड़ी प्यारी भुजा को भी धर्म भय से बारंबार कंठ पर धरती और उतारती रहती हैं काशी से प्रस्तरमय नगर का तो कुछ पूछना ही नहीं घर सब तनदूर हो जाते हैं छत के पत्थरों को चन्द्रमा अपनी शीतल किरणों से प्रातःकाल की वायु से भी सहायता लेकर नहीं ठंडा कर सकता यदि किसी छोटी खिड़की के पास मुंह ले जाओं तो अजगरों की श्वास और लोहारों की धौकनी के सामने बैठने का आनंद मिलता है, यद्यपि नीची गलियों में सूर्य की उल्वण किरणें नहीं पहुँचती तो भी वे उन संतप्त गृहों के संताप में ऐसी संतप्त हो जाती है और उमस जाती है कि संकेत बदे हुए नायिका नायक के अतिरिक्त जिनको ऐसे प्राणों का शत्रु सूर्य भी शरहतु के चन्द्रमा सा आनंददायक होता है, एक "चिड़िया का पूत" मी नहीं रहता, पृथ्वी तवा सी संतप्त हो जाती है लोग तहखानों में वृक्षों की छाया में, टटियों की आड़ में पौसरों में जलाशयों के निकट और छाया के स्थानों में दिन भर अधमरे से पड़े रहते हैं, और अपने इस दिन पर वियोगिनियों की रातें निछावर किया करते हैं । गऊ, घोड़े इत्यादि घरैले पशु और सुग्गा, कौआ इत्यादि पक्षी भी व्याकुल होकर हाफा करते हैं और दन कुत्ते तो साहिब मजिस्ट्रेट की आज्ञा से भी विशेष त्रस्त हो कर जीभ निकाले दुम दबाये इधर उधर आकुल हो दौड़ा करते हैं कहीं शरण नहीं मिलती, जहां कहीं पौसरों का पानी गिरा रहता है या पनघट होता है वहां घड़ी दो घड़ी पड़े रहकर कुछ विप्रामामास कर लिया करते हैं वायू का प्राण नामकरण इसी ऋतु में हुआ पंखे लोगों के ऐसे मित्र हो रहे हैं कि क्षण पर भी नहीं छूटते धनवान लोग खसखानों में धर्मेन्टीडोट के सामने बर्फ का पानी पिया करते हैं परन्तु धनहीन लोगों को तो किसीप्रकार से भी इस ऋतु में सुख नहीं मिलता कबूतर के दरबे की मांति किराये के घरो में कलौजी से कसे सड़ा करते है और वायु के स्वच्छ न रहने से अनेक रोगों से भी पीड़ित रहते हैं । रेल पर जाने वाले पथिक कपड़ा पहिने बोझे से लदे सिपाहियों का धक्का खाए रुपया गवाये भूखे प्यासे बिना नहाये धोये गाड़ी की कोठड़ियो में अचार के मटके में पसीने नमकीन नीबू से ठसे जी से खटटे होने को धूप में तपाये जाते है और उसमें भी में अचार के मटके में पसीने से पसीने नमकीन नीबू से ठसे जी से खटटे होने को धूप में तपाये जाते हैं और उसमें भी जब गाड़ी स्टेशनों पर पानी लेने को खड़ी हो जाती है तब तो संयमनी से यमराज आकर अपने शतावधि नरको को एक एक कोठरियों पर न्योछावर करके फेक देते हैं क्योंकि चलने में तो कुछ हवा भारतेन्दु समग्र २०५२

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